इतिहास गवाह है कि कैसे अंग्रेजी भाषा के जरिए भारत की आधुनिक अर्थव्यवस्था को चलाकर ब्रिटिश शासन में पनपे और आज सत्ता में बैठे मठाधीशों ने बाकी समाज पर अपना सिक्का जमाए रखा। अंग्रेजी का थोड़े-बहुत ज्ञान वाले भी हमेशा खास फायदे उठाते रहे हैं। यही नहीं चंद लोग जिनकी अंग्रेजी भाषा पर अच्छी पकड़ है, वो शाही खानदान के लोगों जैसा बर्ताव भी पाने में नहीं हिचकते। और ठीक इसके पलट, जिनके पास यह कौशल नहीं होता, उन्हें नाकारा भी महसूस कराया जाता है, जिससे वो खुद अपने पर से भरोसा ही खो बैठते हैं। यानी अगर आप एक खास तरीके और अंदाज में अंग्रेजी बोलकर किसी को खास सामाजिक और सांस्कृतिक वर्ग के दायरे में तुरन्त प्रवेश मिल जाएगा। तो वहीं दूसरी ओर भले ही आप किसी ऊंची जात से आते हों, अगर अंग्रेजी नहीं बोल सकते तो आपके लिए सभी दरवाजे सदा बंद ही रहते हैं। उन्हें तो ओछे प्राणियों जैसा मान लिया जाता है।
आज इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी युग में अंग्रेजी की अहमियत और भी बढ़ जाती है। इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में खासकर भारत की बड़ी कामयाबी के पीछे नौजवानों के एक बहुत छोटे हिस्से का ही रोल है, जिन्होंने किसी कॉन्वेंट या मिशनरी स्कूल में तालीम हासिल की है, जो फर्राटे से अंग्रेजी बोलते औऱ लिखते हैं। अगर हम थोड़ा और गौर करें तो पाते हैं कि आर्थिक दृष्टि से ये नौजवान अपेक्षाकृत बेहतर परिवारों से आते हैं जो मझौले या बड़े शहरों में रहते हैं। जबकि इनके मुकाबले कई गुना ज्यादा नौजवान ऐसे हैं जो आज भी सूचना प्रौद्योगिकी के मायालोक से बेखबर हैं और वो इस क्रांति में कोई भूमिका निभाने के हालात में नहीं हैं। ये सभी वे लोग हैं जो अंग्रेजी भाषा को अपने सामाजिक या व्यावसायिक जिंदगी को जरूरत नहीं मानते। ऐसे लोगों की तादाद अमेरिका, रूस और कुछ यूरोपीय देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा हैं, जो करीब देश की कुल आबादी की 15 फीसदी है।
हालांकि देश के कुछ ऐसे जिलों हैं, जहां मिशनरी गांव और शहरों में चलने वाले सरकारी स्कूलों से बेहतर स्कूल चलाते हैं, और वहां रहने वाले ईसाई लड़के-लड़कियों के पास उन ऊंची जात के युवा लड़के-लड़कियों की तुलना में बेहतर शिक्षा और बेहतर रोजगार के मौके होते हैं। जैसे कोई शख्स जो भले ही किसी जाति में पैदा हुआ होता है और वो मॉडर्न स्कूल या सेंट स्टीफन्स जैसे कालेज में पढ़ा-लिखा होता है तो आसानी से ऑल इंडिया सुपर कास्ट के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। ऐसे में इस तरह उसके पास केवल जन्म से अपनी ऊंची जात की मुख्य योग्यता रखने वालों की तुलना में कई गुना ज्यादा मौके रहते हैं।
ऐसे में अगर देश के इन करोड़ों वंचित नौजवानों को अंग्रेजी से लैस कर सूचना क्रांति में योगदान देने का मौका मिल जाए तो इस क्षेत्र में न जानें हम और कितने आगे बढ़ सकते हैं। लेकिन, ये तभी मुमकिन है जब हम उन्हें उनकी ही भाषा में नई तकनीक से रूबरू कराएं और अंग्रेजी भाषा को उनके विकास में रोड़ा न बनने दें।
हालांकि, अब ऐसा नहीं होगा। अब गांव की मिट्टी में भी अंग्रेजी के ‘बोल’ घुलेंगे। गांव के बच्चे भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोल सकेंगे, जिसके लिए हमने एक रास्ता ढूंढ़ निकाला है। शायद आपको याद होगा कि पिछले महीने एक लेख में भी हमने जिक्र किया था कि कैसे गांववालों के लिए अंग्रेजी सफलता की सीढ़ी बन सकती है, जिसके लिए डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने ब्रिटिश काउंसिल के साथ करार किया है। इस करार के तहत अब देशभर के गांवों में सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्रों पर ही ब्रिटिश काउंसिल की अंग्रेजी कोर्स पढ़ाई जाएगी। इस कोर्स की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ग्रामीणों को अंग्रेजी भी हिंदी या उनकी स्थानीय भाषा में पढ़ाई जाएगी, जो पूरी तरह ऑनलाइन होगी- यानी एक पंथ-दो काज। इस कोर्स को करनेवाले ग्रामीण अंग्रेजी सीखने के साथ साथ कंप्यूटर भी सीख जाएंगे।
इसका तरीका इतना आसान है कि गांव वाले खेल-खेल में पहले कंप्यूटर से दोस्ती कर सकेंगे और फिर अंग्रेजी से भी तालमेल बैठा सकेंगे। जरूरत यह है कि सारी ट्रेनिंग स्वाभाविक होगी। ग्रामीणों पर किसी भी तरह का कोई दबाव नहीं होगा। ये कोर्स 40 घंटे का होगा, जिसे पूरा करने के लिए 6 महीने का वक्त मिलेगा, ताकि अपने दिनचर्या के मुताबिक पढ़ाई के लिए समय निकाल सकेंगे। इसके अलावा एक और खास बात ये भी है कि इस इंगलिश कोर्स को ग्रामीण अपने स्थानीय भाषा में ही सीख सकेंगे, जो पूरी तरह ऑनलाइन होगी।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।