दुनिया भर में सूचना क्रांति को नई दिशा देने में भारत का जो योगदान रहा है उसे देखते हुए दुनिया के लोगों में ये सोच बन गई है कि भारत के ज्यादातर शिक्षित युवा आईटी के क्षेत्र में अच्छा-खासा ज्ञान रखते होंगे। हालांकि इसके पीछे सच्चाई कुछ और ही है।
दरअसल सूचना प्रौद्योगिकी में भारत की बड़ी कामयाबी के पीछे भारतीय नौजवानों के एक बहुत छोटे हिस्से का ही रोल है, जिन्होंने किसी कॉन्वेंट या मिशनरी स्कूल में तालीम हासिल की है। आर्थिक दृष्टि से ये नौजवान अपेक्षाकृत बेहतर परिवारों से आते हैं और मझौले या बड़े शहरों में रहते हैं।
लेकिन, इनके मुकाबले कई गुना ज्यादा नौजवान ऐसे हैं जो आज भी सूचना प्रौद्योगिकी के मायालोक से बेखबर हैं और वो इस उद्योग के विकास में कोई भूमिका निभाने के हालात में नहीं हैं।
ये वहीं नौजवान हैं जो या तो छोटे शहरों, कस्बों या गांवों में रहते हैं या फिर आर्थिक दृष्टि से गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं और जिनकी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम के स्कूल-कॉलेजों में नहीं हुई है। वो अंग्रेजी में काम करने और इस भाषा में बात करने में परेशानी महसूस करते हैं। हालांकि उनमें से लाखों नौजवान बहुत मेधावी और प्रतिभावान होते हैं लेकिन अंग्रेजी उनकी कमजोरी होती है।
इसी कमजोरी को महसूस करने के लिए हमने चांदोली गांव के ही एक नौजवान से जानने की कोशिश की। हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर रहा ग्रेजुएशन का छात्र राजस्थान सरकार द्वारा चलाई जा रही कंप्यूटर कोर्स भी पूरी कर चुका था। उसका कहना था कि मैं “हिंदीभाषी इलाके के एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखने के कारण मेरी पूरी पढ़ाई हिंदी माध्यम से ही हुई और एकाएक कंप्यूटर जानने के लिए राजस्थान सरकार की कंप्यूटर शिक्षा योजना में दाखिला ले लिया। वहीं मुझे अंग्रेजी के कुछ शब्दों से वास्ता पड़ा। अंग्रेजी मेरे सामने किसी पहाड़ से कम मुसीबत नहीं थी। मैं अक्सर डिक्शनरी में अर्थ खोजते रहता था। इसी कसरत से थककर अकसर मेरे मन में विचार आता था कि मेरा गणित ज्ञान और तर्कशक्ति अच्छी है लेकिन अंग्रेजी क्यों नहीं। जिसकी वजह से कंप्यूटर भी सीखने में भी दुस्वारी होती थी। हालांकि, किसी तरह कोर्स हमने पूरी तो कर ली लेकिन अंग्रेजी नहीं जानने की वजह से आज भी नौकरी के लिए इंटरव्यू का समना करना मेरे लिए नामुमकिन सा है।”
भारत में अंग्रेजी न जानने वालों की तादाद देश की कुल आबादी की 15 फीसदी है। ये सभी वे लोग हैं जो अंग्रेजी भाषा को अपने सामाजिक या व्यावसायिक जिंदगी को जरूरत नहीं मानते। ये लोग अमेरिका, रूस और कुछ यूरोपीय देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि अगर देश के करोड़ों गैर अंग्रेजीभाषी नौजवानों को भी सूचना क्रांति में योगदान देने का मौका मिले तो इस क्षेत्र में हम और कितने आगे बढ़ सकते हैं?
ऐसा वाकई हो सकता है अगर हम हिंदी के साथ साथ हम अंग्रेजी की अहमियत को भी तवज्जू दें। ऐसे तभी मुमकिन है जब हम दूर दराज के गांवों में सूचना और तकनीक की शिक्षा के साथ-साथ अंग्रेजी सीखने की सुविधा मुहैया करें।
ये उसी तर्ज पर करना होगा जैसे पिछले कुछ सालों में कई बड़ी आईटी कंपनियां अपने सॉफ्टवेयर के इंटरफेस (मेन्यू, बटन, डायलॉग बॉक्स वगैरह) का देसीकरण किया था।इसी चक्र को एक बार फिर उलटा घुमना होगा। यानी हिंदी भाषी ग्रामिणों को आईटी शिक्षा के साथ अंग्रेजी सीखने के लिए प्रेरित करना होगा।
इसके लिए डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन ने हाल ही में ब्रिटिश काउंसिल से हाथ मिलाया है, ताकि किसी ग्रामीण की तरक्की में अंग्रेजी रोड़ा न बनें। 27 फरवरी 2014 को ब्रिटिश काउंसिल और डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन के बीच हुए करार में ऐसे तीन कोर्स शामिल हैं जो किसी भी ग्रामीण को उसकी शिक्षा और जरूरत के मुताबिक उन्हें उसी तरह की अंग्रेजी की शिक्षा दी जाएगी। ब्रिटिश काउंसिल की ये तीनों कोर्स उन लाखों मेधावी और प्रतिभावान ग्रामीण नौजवानों को एक नए मुकाम तक पहुंचाने में सीढ़ी का काम करेंगे।