पिछले दिनों 1 मई को हर बार की तरह, इस बार भी देश भर में मजदूर ये नारे लगाते दिखाई दिए कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ। ये देखकर अपने आप में एक सवाल पैदा होता है कि क्या वाकई ये मजदूर कभी एक हो पाएंगे? क्या वाकई इन्हें कभी अपना हक मिल पाएगा? शायद नहीं।
हालांकि मजदूरों के कल्याण के लिए अर्जुन सेन गुप्ता आयोग के अलावा, कई अन्य समितियां भी बनीं। लेकिन, उन आयोगों द्वारा सरकार के सामने रिपोर्ट पेश करने के बावजूद आज तक उस पर कोई अमल नहीं हो पाया।
यही वजह है कि आज चाहे खेत में काम करने वाला मजदूर हो, या रिक्शा खींचने वाला, भवन निर्माण में लगे हुए लोग हों, या कल-कारखाने में, किसी बड़े उद्योग का मजदूर हो या ईंट भट्टों में काम करने वाला, सभी की हालत बद से बदतर होती जा रही है। इन मजदूरों के पास न रहने के लिए हवादार मकान हैं, न पीने के साफ पानी, न बिजली है, न अच्छे कपड़े। न स्वास्थ्य-चिकित्सा की सुविधाएं और न सामाजिक सुरक्षा की कोई गारंटी!
इन मजदूरों के लिए कानून तो बनाया गया, लेकिन उनमें इतने छेद कर दिए गए हैं कि उस छेद से छन-छन कर उनके हक का मलाई भ्रष्ट अफ सर-दलाल-ठेकेदारों को मिल रही है। सारा फायदा उनकी झोली में गिरने लगा। आज शहरों में नामी-गिरामी कंपनियां, पंच सितारा होटलों से टक्कर लेते ऑफि सों की चकाचौंध के पीछे इन्हीं मजदूरों के शोषण की एक स्याह सच्चाई छिपी है।
आजाद भारत के मजदूरों की ऐसी दयनीय स्थिति एक दिन में नहीं हुई, बल्कि यह सालों साल से चले आ रहे उपेक्षा और शोषण का नतीजा है। इस हालात के मद्देनजर अगर कोई पूंछे कि इस हालात का जिम्मेदार कौन है? तो इस देश में किसी के पास जवाब नहीं होगा। किसी नेता या उद्योगपति के पास भी नहीं।
आखिर क्यों रच रहे हैं हम ऐसा समाज? क्या हम सब की जिम्मेदारी नहीं बनती कि आजाद भारत के माथे पर मजदूरों की जो स्थिति कलंक के धब्बे जैसे लगती है, उससे देश को निजात दिलाए? उन्हें भी समाज की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका दे। उन्हें भी ऐसा अवसर प्रदान करें कि वो और उनके बच्चे भी तकनीकी रूप से कुशल हो सकें।
आज अगर हम उनकी बढ़ती आबादी और घटता जीवनस्तर पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि देश में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या करीब 93 प्रतिशत है, जिसे पेंशन, भविष्य निधि, अवकाश और चिकित्सीय सुविधाएं भी हासिल नहीं है। जबकि संगठित क्षेत्रों के मजदूरों जिनकी संख्या महज पौने तीन करोड़ है, उनकी हालत में बेशक सुधार हुआ है, लेकिन यहां नई नियुक्तियों की बजाय अनुबंध पर नौकरी कराने का चलन बढ़ गया है।
एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में कुल श्रम शक्ति करीब 48 करोड़ है। इनमें से 7 फीसदी ही संगठित क्षेत्र में काम करते हैं और ट्रेड यूनियनों की 70 फीसदी सदस्यता भी इसी से जुड़ी हुई है। मौजूदा दौर में असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों की हालत काफ़ी दयनीय है। चाहे वे बीड़ी मजदूर हों या दैनिक मजदूर, फुटपाथों पर फ लों की रेहड़ी लगाने वाला हो या फिर रिक्शा, ठेला और तांगा चलाने वाले मजदूर। सिर्फ दिल्ली में ही उनकी संख्या करीब 5 लाख है, जबकि पूरे देश में इनकी संख्या करोड़ों में है।
जनगणना आंकड़ों के विश्लेषण से जो रुझान सामने आ रहे हैं, वे बेहद चिंताजनक हैं। आंकड़ों के मुताबिक देश में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही है, और जिन्हें रोजगार मिला हुआ है, उनके जीवन में भी अनिश्चय और आशंका की गुंजाइश बढ़ती जा रही है।
ऐसे हालात में जरूरत है कि ग्रामीण मजदूर भी ईंट युग से निकल इंटरनेट युग में प्रवेश करें। नई तकनीक से लैस होने पर ही मजदूर खुद सूचना प्राप्त कर सकेंगे और रोजगार के नए-नए अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। इसी मकसद से 1 मई यानी मजदूर दिवस के दिन ही हमने बिहार के ऐसे इलाके में सूचना संसाधन केंद्र खोलने की शुरुआत की जहां करीब 90 फीसदी आबादी मजदूरों की है। मुजफ्फ रपुर से करीब 15 किलोमीटर दूर रतनौली गाँव के लोग मनरेगा के तहत मजदूरी कर अपनी जिंदगी बसर करते हैं।
हालांकि, यहां के लोग भी दूसरे गाँवों की तरह को मनरेगा के तहत काम नहीं मिलना औऱ समय पर उचित मजदूरी नहीं मिलने के शिकार थे। लेकिन, स्थानीय अशिक्षित समाजिक कार्यकर्ता संजय साहनी के नेतृत्व में जागरुकता अभियान के बाद सब शिकायतें दूर हो गईं। इसलिए हमने भी सोचा कि क्यों न इस इलाके को सूचना संपन्न कर और समृद्ध बनाया जाए ताकि वो भी इंटरनेट क्रांति का हिस्सा बन सकें। और फिर 1 मई यानि मजदूर दिवस के दिन ही रतनौली सीआईआरसी का उद्घाटन हुआ, जिसमें गाँव के करीब 200 लोगों ने शिरकत कर इंटरनेट शिक्षा पाने की इच्छा जाहिर की और रजिस्ट्रेशन भी कराए।
हालांकि सूचना संपन्न और समृद्ध गाँव बनाने के मकसद से देश भर में करीब 50 ऐसे सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र सक्रिय हैं, जहां इंटरनेट के जरिए हर प्रकार की सूचना उपलब्ध है। लेकिन, 90 फीसदी असंगठित मजदूरों की आबादी वाला गाँव रतनौली में इतनी बड़ी तादाद में इंटरनेट शिक्षा और सूचनाएं पाने के लिए रजिस्ट्रेशन अपने आप में क्रांति का सूचक है।
गौरतलब है कि भारत की कुल आबादी का 70 फीसदी लोग गाँवों में रहते हैं और जिन्हें 2,45,525 पंचायतों द्वारा शासित किया जाता है। लेकिन आधारभूत के अभाव और संसाधनों की उपलब्धता की वजह से ही ग्रामीण क्षेत्र अभी भी सूचना प्राप्त करने में सफ लता प्राप्त नहीं कर सका है। साथ ही साथ बहुत सारे लोग तो इस बात से अनजान भी हैं कि उन्हें किस तरह के अधिकार प्राप्त हैं और सरकार की कौन सी नई योजना उनके लिए उपलब्ध है।
ऐसी ही तमाम जानकारी के साथ-साथ सूचना संसाधन केंद्र पर कंप्यूटर शिक्षा, इंटरनेट के जरिए पत्राचार जैसी तकनीकी शिक्षा से दूरदराज गाँवों को जागरुक करने की कोशिश है। क्योंकि सूचना ही विकास की पहली सीढ़ी है जो किसी भी व्यक्ति को उसके मंजिल पर पहुंचने के लिए रास्ता दिखाता है।
आज इंटरनेट की पहुंच आम नागरिक के जीवन के हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में पहुंच चुकी है। लेकिन इसका सही इस्तेमाल ही विकास के सभी द्वार खोल सकता है। भारत जैसे विकासशील समाज में जरूरत इस बात की है कि सरकारी नीतियों, आवेदनों, योजनाओ, घोषणाओं वगैरह के डिजिटलीकरण, सूचीबद्ध करने और एक सिलसिलेवार तरीके से प्रस्तुत करने की। ताकि मजदूरों के अलावा आम नागरिक भी सारी सूचनाओं को सहजता से प्राप्त कर सकें। तभी दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ के नारे को भी सार्थक रूप मिल सकेगा और मजदूरों को रोजगार ने नए-नए अवसर।
ओसामा मंजर
(लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फ उंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य हैं।)
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