पिछले हफ्ते मैंने अपने लेख में जिक्र किया था कि कैसे हमारे पुर्वजों की अनमोल विरासत बचाई जा सकती है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए मैं आज चर्चा करुंगा कि कैसे उन्हीं अनमोल विरासतों को नई तकनीक के माध्यम से संरक्षित कर एक नई पहचान दिलाई जा सकती है।
हालांकि, संरक्षण को लेकर पहले भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) कई बार अनेकों जुगत कर चुका है। इनमें से एक था अक्टूबर 2013 में भारतीय पुरातत्व
सर्वेक्षण (एएसआई) और गूगल इंडिया के बीच करार। जिसके अंतर्गत ऐतिहासिक स्थलों की 360 डिग्री नजारा दिखाने वाली ‘स्ट्रीट व्यू ट्रेकर’ जैसी लोकप्रिय तकनीक का इस्तेमाल कर ‘डिजिटल पर्यटन’ की शुरुआत की थी। जिसमें यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल ताजमहल, कुतुब मीनार और लालकिला जैसी धरोहरों को मिलाकर कुल 30 मुख्य स्थलों की जानकारी मुहैया कराई गई थी। इसके बावजूद विश्व धरोहरों में से कई भारतीय धरोहरें ऐसी भी हैं, जिनके बारे में आज भी आम लोगों के बीच ज्यादा जागरूकता नहीं है।
मिसाल के तौर पर खस्ता हाल कोस मिनार को ले सकते हैं, जो मुगलकाल में दूरी और दिशा की जानकारी देने के लिए बनाया गया था। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) के मुताबिक, दिल्ली में केवल एक ही कोस मीनार बची है जो चिड़ियाघर के अंदर मौजूद है। बाकी के कोस मीनार का समय के साथ अस्तित्व मिट गया। 1 कोस करीब 3 किलोमीटर के बराबर होता है। पुराने जमाने में दूरी कोस में ही मापी जाती थी। देश में कब, कहां और कितनी विरासतें गुम हो गई हैं, क्योंकि संस्था के पास सभी धरोहरों के सही आंकड़े तक नहीं हैं।
लेकिन, फिर भी सराकरी के पास मौजूद आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल 2013 तक पूरी दुनिया में करीब 981 स्थलों को विश्व विरासत स्थल घोषित किया जा चुका है, जिसमें 759 सांस्कृतिक, 29 मिले-जुले और 160 अन्य स्थल हैं। जिनमें से 44 धरोहरों को यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज कमेटी ने खतरे की सूची में दर्ज है। इन आंकड़ों के अलावा कई और ऐसी धरोहरें हैं जो गुमनामी के अंधेरे में कैद हैं, जिनकी फेहरिस्त काफी लंबी है।
दरअसल, धरोहरों की इतनी लंबी फेहरिस्त की देखरेख के लिए एक कुशल प्रबंधन टीम की जरूरत है, जो नई तकनीक का भरपूर इस्तेमाल कर इन्हें न सिर्फ संरक्षित करे बल्कि उन्हें इंटरनेट के माध्यम से दुनिया को रूबरू कराए। इसी जरूरत को महसूस करते हुए इन ऐतिहासिक धरोहरों की जानकारी इकट्ठा कर लोगों तक पहुंचाने के लिए डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने यूनेस्को से हाथ मिलाया है। जिसके तहत फिलहाल देश के 4 ऐतिहासिक स्थलों के फोटो के साथ-साथ पूरी जानकारी ऑनलाइन कर लोगों से रूबरू कराना है। ये चारों हेरिटेज साइट्स हैं पुरानी दिल्ली (शाहजहानाबाद), चंदेरी, पुणे और शेखावटी।
हालांकि, विशेषज्ञों भी मानते हैं कि वेबसाइट या सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों में धरोहरों के प्रति जागरूकता फैलाने का दूसरा तरीका है। इस राह में ‘
ई-हेरिटेज’ वेबसाइट डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन और यूनेस्को की एक साझा कोशिश है। ई-हेरिटेज वेब-साइट के जरिए पर्यटक पुरानी दिल्ली (शाहजहानाबाद), चंदेरी, पुणे और शेखावटी के उन ऐतिहासिक स्थलों से रूबरू होंगे जिनके बारे में आम लोग अब भी अनजान हैं। साथ इस पहल से सराकरी एजेंसियों को इसकी स्थिति जानने और रख रखाव में भी काफी मदद मिलेगी।
वैसे भी इंटरनेट युग में पर्यटक बहुत समझदार हो गए हैं, हर तरह की जानकारी खुद अपने मोबाइल पर ही ढूंढ लेते हैं। ऐसे में ई-हेरिटेज जैसी पूरी जानकारी अगर उन्हें मोबाइल पर ही मिल जाए तो उनकी मुराद पूरी होने जैसी होगी।
इंटरनेट युग में जैसे जैसे कंप्यूटर की जगह मोबाइल यानी स्मार्टफोन लेने लगा है, वैसे-वैसे मोबाइल पर भी इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या में
इजाफा होता जा रहा है। जिसे देखते हुए पर्यटकों के लिए मोबाइल एप्लीकेशन भी तैयार किए जा रहे हैं। इस मोबाइल एप्लीकेशन का नाम ‘एम-हेरिटेज’ रखा गया है, जिसे इस्तेमाल करने के लिए मोबाइल का एक बटन दबाते ही विभिन्न ऐतिहासिक पहलुओं के साथ भारतीय धरोहारों की पूरी जानकारी पर्यटकों की मुट्ठी में होगी। ऐसे में धरोहर तक पहुंचने में ‘एम-एप्स’ उनकी राह आसान कर देगा। यानी अब एक स्मार्ट फोन भारत की ऐतिहासिक धरोहरों का इतिहास बता सकता है।
हालांकि, पहले चरण में ‘एम-हेरिटेज’ की शुरुआत सिर्फ शाहजहानाबाद से हो रही है, लेकिन जल्द ही चंदेरी, पुणे और शेखावटी जैसे ऐतिहासिक धरोहरों की जानकारी ‘ एम-हेरिटेज’ पर उपलब्ध होगी।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।