आजादी के बाद किसानों की एक बड़ी आस थी कि अब उनके दिन सुधर जाएंगें। जो कुछ किसानों के पास था अपना पुराने खेती के औजार, पुरानी खेती के तौर तरीके, पुराने देशी नस्ल के गाय- बैल, भैंस, बकरी, सादगी से भरपूर रहन-सहन और आपसी भाई-चारा। क्या उमंग, क्या जोश था।
गांवों की आबो-हवा, तालाब, हरे भरे पेड़-पौधों वाला सुनहरा मंजर मानों यूं बयां कर रहा हो कि – ‘‘चारों ओर ताल तलैया, घर बगिया की छांव हो, स्वर्ण सा सुन्दर लागे भइया आपन गांव-गिराव हो।’’ ये साबित करता है कि उन दिनों गांवों में एक अजीब ही रिश्ता और माहौल हुआ करता था।
हालांकि आजकल जैसे सबके पास आने जाने के साधन नहीं थे, फिर भी पैदल चल कर साल में कई बार सभी रिश्तों में अपनी हाजिरी जरूर दर्ज करा देते थे।
लेकिन, आजादी के बाद एक बार देश की बागडोर सौभाग्यवश एक गांव के छोटे कद के किसान ‘लाल बहादुर शास्त्री’ के हाथ लगी। उस वक्त देश में आबादी के मुताबिक अनाज की पैदावार कम होने से अनाज संकट का दौर था। इस संकट से निपटने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने गांव और गांव के किसान का नारा बुलन्द किया। और इस देशव्यापी आह्वान में उन्होंने विज्ञान के सहयोग से नई तकनीक, उन्नत बीज और किसानों को आधुनिक प्रशिक्षण पर जोर दिया था। देखते ही देखते देश की कृषि ने एक नया रूप लेना शुरू कर दिया। इसी बीच शास्त्री जी की आकस्मिक मौत ने किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
लेकिन, शास्त्री जी ने जाते-जाते किसानों एक नई राह दिखा दी थी। इसी रास्ते का अनुसरण करते हुए किसानों के लिए एक नया मसीहा चौधरी चरण सिंह के रूप में पैदा हुआ।चौधरी चरण सिंह ने भी किसानों और खेती की अहमियत बताते हुए कहा था कि देश की खुशहाली का रास्ता गांव के खेतों और खलिहानों से होकर गुजरता है।
लेकिन, इतनी कोशिशों के बावजूद आजादी के 66 साल बाद भी कृषि प्रधान देश में किसान काफी चिन्तित हैं। अगर आज हम भारत की तुलना विकसित देशों से करते हैं तो पाते हैं कि भारत में कृषि अनुदान सिर्फ 17.8डॉलर प्रति हेक्टेयर है, जबकि जापान 6915 डॉलर, यूरोपीयन यूनियन 1016 डॉलर, न्यूजीलैण्ड 317 डॉलर, अमेरिका 184 डॉलर, कनाडा 167 डॉलर प्रति हेक्टयेर अनुदान दे रहा है।
हालांकि, ऐसी बदहाल स्थिति के कई वजहें हो सकती हैं। भारत में किसान समुदाय की विषमता, और अलग-अलग फसलों की पैदावार भी उनमें से दो अहम वजहें हैं। जिसकी वजह से किसानों तक खेती से जुड़ी जानकारी पहुंचाना हमेशा एक बड़ी चुनौती रही है । आज के समय में किसान को दो चीजों की जरूरत है पूंजी और तकनीक की। आज के आधुनिक और इंटरनेट युग में किसान समय के मुताबिक खेती करें, तभी किसानों का विकास संभव है।
दशकों से परंपरागत तरीके से खेती से जुड़े कई किसान भी इन दिनों नए-नए तकनीक और तरीकों को अपनाकर अब आंत्रप्रन्योर या एग्रोप्रेन्योर बनते जा रहे हैं और अब खेती उनका बिजनेस भी बनता जा रहा है। ये उभरते एग्रोप्रन्योर अपनी जिंदगी के साथ-साथ इससे जुड़े लोगों की जिंदगी बदलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। इसके कई उदाहरण हमारे पास हैं, जिन्होने डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन द्वारा आयोजित सलाना अवॉर्ड समारोह में सम्मानित हो चुके हैं। उनमें कुछ नाम हैं ‘क्रॉप इन’, ‘एग्री मित्रा’, ‘एग्रोपीडिया 2.0’, ‘ई-एग्रीकल्चर’ और ‘एप्पल प्रोजेक्ट’। ये ऐसे कुछ नाम है जिन्होंने तकनीक और इंटरनेट के सहारे खेती में मदद कर किसानों का जीवन स्तर सुधारने और उनके विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
‘क्रॉप इन’ जहां वेब और मेबाइल टेक्नॉलॉजी के सहारे किसानों को उन्नत कृषि के तरीके और सुझाव देता है, वहीं ‘एग्री मित्रा’ किसानों को मोबाइल पर मौसम के अनुकूल फसल की जानकारी देता है। जबकि ‘एग्रोपीडिया 2.0’ एक ऐसा वेब एप्लिकेशन है जहां खेती से जुड़ी हर तरह की जानकारी उपलब्ध है। ऐसी किसी प्रकार की जानकारी के लिए अबतक ‘एग्रोपीडिया 2.0’ वेबसाइट पर 8500 लोग रजिस्ट्रेशन करा चुके हैं। जबकि ‘ई-एग्रीकल्चर’ पूरी तरह सूचना और तकनीक पर आधारित है। इसके अंतर्गत ‘इ-एरिक’ नाम से आदिवासी किसानों के लिए प्रोग्राम शुरू किया गया है, जिसके तहत आदिवासी बहुल ग्रामीण इलाके में किसानों के इंटरनेट और कंप्यूटर की पूरी ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वो खुद खेती से जुड़ी जानकारी कंप्यूटर और इंटरनेट की मदद से हासिल कर सकें। और इस सभी एग्रोप्रेन्योर से आप भी 5 और 6 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित होने वाले 10वें मंथन अवॉर्ड्स समारोह में मिल सकते हैं।
इन्हीं एग्रोप्रेन्योर की कोशिशों के बदौलत आज हमारे देश में कृषि के क्षेत्र में जो भी थोड़ी बहुत आत्म निर्भरता दिखाई देती है, उसमें सूचना और तकनीक का बहुत बड़ा योगदान है। इस सूचना ने भारत में कृषि क्षेत्र को उन्नत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, चाहे बारिश का पूर्वानुमान लगाना हो या कि फसल की उन्नत तकनीकी देखभाल हो कम्प्यूटर के युग में यह काम अब आसान हो गया है। गाँव-गाँव में मोबाइल टॉवर कम्प्यूटर इन्टरनेट के जाल फैसले से जरूरी सूचना भेजना आसान हो गया है। जिसकी वजह से ही आज भारत में हरित क्रांति का परचम लहलहा रहा है।
वैसे भी उन्नत तकनीक और इंटरनेट की पहुंच के बावजूद किसानों को पूरी तरह से कृषि तकनीक से लैस करना इतना आसान नहीं है। इन्हें न सिर्फ नेट पर सूचनाओं को ढूंढने, बल्कि इंटरनेट के जरिये अपनी सूचनाओं को अपलोड करने और अपनी सूचनाओं से दूसरों के साथ आदान-प्रदान करने की तकनीक भी सिखाई जानी चाहिये। इसलिए किसानों को ट्रेनिंग देकर उन के सांस्कृतिक गुण और विज्ञान और तकनीकी स्तर को उन्नत करने की बड़ी ज़रूरत है। इसके साथ-साथ भारत जैसे देश में जहां गांव-गांव तक मोबाइल की पहुंच है, वहां सरकार को एक ऐसी नीति बनाने की भी जरूरत है जो मोबाइल जैसे माध्यम का भरपूर फायदा उठाते हुए दूरदराज गांवों के हर किसान को कृषि योजना का लाभ दे सके और उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोड़ सके।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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