बापू ने एक बार गांवों के विकास में स्वयंसेवी प्रयासों की भूमिका को यह कहकर प्रोत्साहित किया था कि ‘राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक दायित्व’ भी आवश्यक है।’ आज भले ही हम राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल कर चुके हों, लेकिन विडंबना यही है कि परोपकार का जो काम कभी भारतीय समाज में नैतिक जिम्मेदारी समझ कर किया जाता था आज वह संगठित होने के बावजूद उसकी पहुंच सीमित है।
आंकड़ों पर गौर करें तो 1970 में भारत में 1.44 लाख एनजीओ रजिस्टर्ड थे, जबकि 2000 में यह संख्या बढ़कर 11.22 लाख तक पहुंच गई। और अब भारत में तकरीबन 33 लाख रजिस्टर्ड एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) मौजूद हैं, यानी देश भर में 400 लोगों पर एक एनजीओ। अगर हम मान लें कि इनमें से आधी एनजीओ भी सक्रीय है तो ये संख्या करीब 16.5 लाख होती है। इतनी बड़ी संख्या में एनजीओ की मौजूदगी के बाद भी भारत में बड़े पैमाने पर गरीबी, अशिक्षा एवं पिछड़ेपन की समस्या आखिर बरकरार क्यों है?
अगर हम गौर करें तो पाते हैं कि देश की विकास में अहम रोल अदा करने वाली दो ऐसी संस्थाएं हैं जहां ज्यादातर आंकड़ा मौजूद है। एक सरकारी दफ्तर औऱ दूसरा एनजीओ, और ये दोनों ही महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सूचना अदान-प्रदान में सक्षम नहीं हैं। जहां सरकारी मशिनरी विकास की नीति फाइलों में होती है, तो वहीं एनजीओ गांव-गांव में इस नीति को अमल में लाने में पुराने तरीकों का सहारा लेती है। हालांकि, कुछ खामियों के बावजूद सच्ची लगन, ईमानदारी व पारदर्शिता से गैर सरकारी संस्थाएं आम जनमानस तक सरकारी तंत्र के साथ मिलकर विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। जिसका नतीजा है कि आज गांवों का स्वरूप बदलने लगा है।
लेकिन, सूचना और तकनीक के इस युग में इन्हें और भी सशक्त होने की जरूरत है। हर एनजीओ को सूचना और तकनीक का इस्तेमाल कर खुद को सीमित दायरे से बाहर निकालना होगा। और इसका एक मात्र रास्ता है डिजिटलिकरण ।
डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 80 फीसदी एनजीओ की कोई वेबसाइट नहीं है। वहीं कई ऐसे एनजीओ हैं जो सूचना और तकनीक का इस्तेमाल नहीं करते और कितनों के पास एक कंप्यूटर तक नहीं है। उन्हें एनजीओ के बारे में कोई सूचना पाने या ई-मेल करने के लिए साइबर कैफे का सहारा लेना पड़ता है।
ऐसे में अगर विश्व भर में जारी विकास की दौड़ में शामिल होना है तो हमें गांवों को सूचना संपन्न बनाना होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रीय गैर सरकारी संस्थाओं को ऑनलाइन करना होगा, ताकि वो भी देश की मुख्य धारा से जुड़ कर विकास की रफ्तार बढ़ा सकें।
इसके मद्देनजर डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन ने करीब 4 साल पहले ‘नेशनल इंटरनेट एक्चेंज फॉर इंडिया’ के साथ मिलकर इ-एनजीओ नाम से प्रोजेक्ट की शुरुआत की। प्रोजेक्ट के पहले फेज में 500 एनजीओं को ऑनलाइन किया गया, तो वहीं दूसरे फेज में अमेरिकन गैर सरकारी संस्था पीआईआर के सहयोग से करीब 1000 एनजीओ को डॉट ओ आरजी (.Org) पर रजिस्टर्ड करने में कामयाबी मिली। हालांकि 2014 में एनजीओ के लिए वेबसाइट डॉट एनजीओ (.ngo) पर भी रजिस्टर्ड होने लगेंगे। इसके अलावा डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन ने इ-एनजीओ नेटवर्क भी तैयार किया जिसके तहत हर एनजीओं की मुफ्त डोमेन के साथ साथ मुफ्त वेबसाइट भी बनाई जाती है। लेकिन, वेबसाइट रिनुअल के दौरान सिर्फ 2500 शुल्क के साथ डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन अनलिमिटेड स्पेस प्रदान करता है ताकि एनजीओ ज्यादा से ज्यादा फोटो, कॉन्टेंट, सूचना डाल सके।
डिजिटल एम्पावरमेंट फाउंडेशन इ-एनजीओ प्रोजेक्ट के तहत अबतक देश विदेश में अब तक 30 वर्कशॉप कर चुका है, जिसमें नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान औऱ केन्या भी शामिल हैं। इस वर्कशॉप के माध्यम से गांवों के काम कर रहे एनजीओ को ऑनलाइन की अहमियत बताया जाता है ताकि इससे वो अपनी पार्दर्शिता के साथ साथ पहुंच भी बढ़ा सकें।
हालांकि, अब तक किए गए सभी वर्कशॉप में एनजीओ की भागीदारी और उत्सुक्ता से साफ पता चलता है कि गांवों के सभी एनजीओं ऑनलाइन होना चाहते हैं, लेकिन संसाधन नहीं होने से वो ऐसा कर नहीं पाते। उन्हें ऑनलाइन लाने के लिए हमें ऑफलाइन काम करना होगा, ताकि वो इसकी अहमियत जान सकें। जैसे जैसे एनजीओ ऑनलाइन होते जाएंगे, वैसे वैसे डिजिटल लिटरेसी मिशन की भी जरूरत कम होती जाएगी। लोग खुद कंप्यूर सीखना शुरू कर देंगे, ताकि वेबसाइट, इंटरनेट के जरिए अपनी सूचनाएं दुनिया में लोगों के सामने रख सकें। इ-एनजीओ के माध्यम से किसी भी एनजीओ के ऑनलाइन होने पर न सिर्फ पैसे की बचत होगी, बल्कि अपनी पारदर्शिता, पहुंच के साथ साथ फंड रेजिंग भी आसानी से कर सकते हैं।
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