दिल्ली में पंजीकृत मजदूरों की संख्या में लगातार कमी होने पर भी सवाल उठ रहे हैं। दिल्ली श्रम कल्याण बोर्ड में पंजीकृत हैं सिर्फ 46,000 पंजीकृत मजदूर जबकि 2015 में यह संख्या 3 लाख 17 हजार थी।
आसिफ इक़बाल
(फोटो: विकिमीडिआ कॉमन्स)
(यह लेख गांव कनेक्शन में प्रकाशित हो चूका है. This article was originally published in the Gaon Connection)
दिल्ली के इंदिरा विकास कॉलोनी में रहने वाले 32 वर्षीय प्रमोद दास लॉकडाउन की बढ़ती अवधि से चिंतित हैं। प्रमोद निर्माण के क्षेत्र में दिहाड़ी-मज़दूरी करते हैं। वह कहते हैं, “पहले तो प्रदूषण के कारण काम बंद रहा। अब कोरोना वायरस के कारण काम मिलना बंद हो गया है। हम लोग दिहाड़ी-मज़दूरी करते हैं, काम नहीं मिलेगा तो कहां से खाएंगे?”
दिल्ली के इंदिरा विकास कॉलोनी में रहने वाले 32 वर्षीय प्रमोद दास लॉकडाउन की बढ़ती अवधि से चिंतित हैं। प्रमोद निर्माण के क्षेत्र में दिहाड़ी-मज़दूरी करते हैं। वह कहते हैं, “पहले तो प्रदूषण के कारण काम बंद रहा। अब कोरोना वायरस के कारण काम मिलना बंद हो गया है। हम लोग दिहाड़ी-मज़दूरी करते हैं, काम नहीं मिलेगा तो कहां से खाएंगे?”
कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर विराम लगा दिया है। भारत में भी इसके संक्रमण को रोकने के लिए 25 मार्च, 2020 को केंद्र सरकार के द्वारा 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा की गयी थी, जिसे अब बढ़ाकर 17 मई तक कर दिया गया है। जिसका सबसे अधिक प्रभाव दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों पर पड़ा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के आंकलन के अनुसार लॉकडाउन के कारण अप्रैल में 12 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरियां चली गईं, जिसमें 75 प्रतिशत नौकरी असंगठित क्षेत्र से गई हैं।
बिहार के मधेपुरा जिले के प्रमोद 15 वर्ष पहले काम की तलाश में दिल्ली आए थे। वह कहते हैं, “इतने वर्षों में कभी ऐसा नहीं हुआ कि घर से पैसा मंगवाने की जरूरत हुई हो। जब प्रदूषण के कारण काम बंद हुआ था तो नवंबर में तो घर चला गया था। होली के बाद लौटा ही था कि लॉकडाउन की घोषणा हो गई। अब यहां न तो काम है और न घर जा पा रहा हूं।”
तीन बच्चों के पिता प्रमोद आगे कहते हैं, “हम यहां भूखे मर रहे हैं और परिवार बिहार में परेशान है। श्रमिक ट्रेन चली तो है लेकिन उसमें जाने के लिए कैसे पंजीकरण करवाएं, कुछ पता नहीं है। बिहार में नोडल अफसर का फ़ोन तो बंद ही रहता है। पुलिस को आधार कार्ड भी दिया था लेकिन कुछ नहीं हुआ।”
वह आगे जोड़ते हैं कि लॉकडाउन में भी कोई सरकारी सहायता हम तक नहीं पहुंची। सरकारी अनाज के लिए न जाने कितनी बार मोबाइल से मैसेज कर चुके हैं, वो भी नहीं मिला आजतक।”
नहीं पहुंच रही सहायता
वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना नाम से सहायता पैकेज की घोषणा की थी। 5 किलो चावल या गेहूं के साथ-साथ दाल मुफ्त में देने की बात कही गई थी, लेकिन यह लाभ उनको ही मिल पाया जिनका राशन कार्ड है। हालांकि दिल्ली उच्च न्यायलय ने दिल्ली सरकार को एक आदेश जारी करते हुए कहा था कि हर ज़रूरतमंद को अनाज दिए जाएं, चाहे राशन कार्ड हो या नहीं।
लेकिन प्रमोद को अपने राशन का अब तक इंतज़ार है। प्रधानमंत्री ने एक और आर्थिक पैकेज की घोषणा की है, जिसमें प्रवासी मज़दूरों को भी राशन देने की बात कही गई है। प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना में निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के लिए आर्थिक सहायता की भी घोषणा की गई थी। निर्माण श्रमिकों के लिए 31,000 करोड़ रुपये के कल्याण कोष का उपयोग करने के लिए राज्यों को निर्देशित किया गया था, लेकिन फिर भी प्रमोद तक दोनों सहायता नहीं पहुंची।
वहीं प्रमोद के साथी 34 वर्षीय राजीव कुमार राजमिस्त्री का काम करते हैं। बिहार के बांका जिला के रहने वाले राजीव परिवार के साथ दिल्ली में किराये पर रहते हैं। वह कहते हैं, “किराया देने के लिए भी पैसे नहीं हैं। क़र्ज़ लेकर मकान मालिक को किराया दिया हूं। सरकार ने सहायता के नाम पर कुछ अनाज दियाहै। उससे क्या होगा?” वह आगे पूछते हैं, “2018 से पहले मेरा नाम श्रम कल्याण बोर्ड में पंजीकृत था और लाभ भी मिलते थे। मैं उसके बाद अपना पंजीकरण नवीकरण नहीं करवा पाया था। निर्माण के क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को उनका ही पैसा सरकार इस महामारी में देने को तैयार नहीं है।”
(फोटो: विकिमीडिआ कॉमन्स)
दरअसल यह धन भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996 के अंतर्गत निर्माण उपकर से आया है, जिसे श्रमिकों के लाभ के लिए खर्च किए जाने के उद्देश्य से श्रम कल्याण बोर्ड द्वारा एकत्रित कियाजाताहै। अधिनियम में कहा गया है कि 10 लाख रुपये से अधिक लागत वाले किसी भी सार्वजनिक या निजी निर्माण परियोजना का 1% उपकर के रूप में जमा किया जाना है। एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग 2500 करोड़ रुपये के कोष वाले बोर्ड ने लगभग 46,000 पंजीकृत श्रमिकों को लगभग 20 करोड़ रुपये वितरित किए हैं। 37,000 ऐसे थे जो पहले से पंजीकृत थे और शेष वे थे जिन्होंने अपना आवेदन जमा किया था।
लगतार क्यों घट रही श्रमिकों की संख्या?
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 में, बोर्ड में 3.17 लाख पंजीकृत श्रमिक थे, 2017-18 में यह संख्या गिरकर 62,663 हो गई। उसके बाद भी संख्या लगातार गिरती ही चली गई। दिल्ली में सत्ता में आते ही अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने नियमों में बदलाव करते हुए पंजीकरण के नवीकरण को हर 3 साल पर अनिवार्य कर दिया। जिसके कारण भी बहुत मज़दूर नवीकरण न करवा पाने के कारण इस के दायरे से बाहर हो गए। हालांकि बाद में इस नियम को बदल दिया गया था। दिल्ली सरकार के द्वारा पारदर्शिता के नाम पर चलाई गई ‘सत्यापन मुहिम’ के कारण भी बहुत से पंजीकृत मज़दूरों की संख्या कम हुई है।
राजीव कहते हैं, “2018 में पंजीकरण और नवीकरण की पूरी प्रक्रिया ऑनलाइन कर दी गई, जिसके बाद से ही पंजीकृत मज़दूरों की संख्या में भारी कमी आई है। फिर उसके बाद महीनों तक भ्रष्टाचार और जांच के नाम पर पंजीकरण बंद रहा। नए पंजीकरण और नवीकरण की पूरी प्रक्रिया बहुत जटिल है। मज़दूर आदमी हैं, काम करेंगे या कागज़ ही ढोते रहेंगे। सरकार मज़दूरों का हक़ देना नहीं चाहती है। अगर देने की मंशा होती तो सभी मज़दूर जो पंजीकृत थे, उन्हें दे देती। आखिर यह पैसे सरकार अपने घर से तो दे नहीं रही है। मज़दूरों के ही पैसे पर उपकर लगा कर जमा किया गया है।”
मज़दूरों को काम से संबंधित उपकरणों की खरीदी में छूट, बच्चों की शिक्षा और मातृत्व में सहायता के साथ-साथ ऋण भी श्रम कल्याण बोर्ड द्वारा उपलब्ध करवाए जाते हैं। निर्माण मज़दूरों के लिए पेंशन की भी व्ययस्था की गई है। जुलाई 2018 में संसद में प्रस्तुत श्रम समिति की 38वीं रिपोर्ट के अनुसार कल्याणकारी उपकर के रूप में 1996 से इकट्ठा किए गए, 38 हज़ार करोड़ में से केवल 9 हज़ार करोड़ ही खर्च किए गए हैं। सभी योजनाओं के माध्यम से वितरित किए जाने वाले उपकर का राष्ट्रीय औसत प्रतिवर्ष एक श्रमिक सिर्फ 499 रुपये है।
राजीव कहते हैं, “सरकार ने इतनी शर्तें लगा दी हैं कि अक्सर प्रवासी मज़दूर इसके कागज़ नहीं जुटा पाएगा। अपना आधार, परिवार का आधार, वर्तमान और स्थायी पता, अपना विवरण, परिवार का विवरण, अंतिम कार्य स्थल का पता, ठेकेदार का नाम, ठेकेदार का पता, बैंक खाता और न जाने क्या-क्या और आधार में नाम नहीं मिलता है उसके लिए पंजीकरण अस्वीकृत कर दिया जाता है।”
(फोटो: विकिमीडिआ कॉमन्स)
बिहार के ही सीतामढ़ी जिला के राकेश कुमार बेलदारी का काम करते हैं। परिवार में अकेले कमाने वाले व्यक्ति हैं। वह कहते हैं, “सरकार ने हमें भुला दिया है। काजीपुर स्कूल में जो भोजन मिलता था, वह भी बंद हो गया है। क़र्ज़ लेकर जैसे-तैसे रह रहें हैं। घर ही जाकर क्या कर लेंगे, कौन सा वहां पैसा रखा हुआ है। मार्च से अब तक एक रुपया भी नहीं भेज पाया हूं।” वह पूछते हैं, “सरकार ने पंजीकरण को बहुत जटिल कर दिया है। 12 पेज का पंजीकरण का फॉर्म है, आप ही बताइए मज़दूर आदमी कैसे भर पाएगा?”
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर इन फॉर्मल सेक्टर एंड लेबर स्टडीज के प्रोफेसर अविनाश कुमार पूछते हैं कि निर्माण के क्षेत्र में क्या 40,000 ही मज़दूर काम करते हैं? वह आगे कहते हैं, “मैंने अपने अध्य्यन में पाया था कि एक सरकारी कंपनी मॉडर्न बिल्डिंग कांट्रैक्टिंग कंपनी में जो मज़दूर काम करते हैं, वह 7 ठेकेदारों के बाद, जो ठेकेदार है उसके लिए काम कर रहे हैं। निर्माण क्षेत्रों में काम करने वालों मज़दूरों की समस्या ठेकेदारी प्रथा के जैसे कई समस्याओं से घिरी हुई हैं। इसके निवारण की इच्छाशक्ति किसी भी सरकार में नहीं दिखती है। ना ही राज्य सरकार में और ना ही केंद्र सरकार में। कोरोना ने हमारी जर्जर व्यवस्था को उजागर कर दिया है।”
वह कहते हैं, “नए श्रम कानून में तो श्रम कल्याण बोर्ड को ही खत्म कर दिया गया है। निर्माण मज़दूरों को जो भी सहायता मिलती थी अब वो भी नहीं मिलेगी। अब सवाल है कि सरकार मज़दूरों के पैसे का क्या उपयोग करेगी?”
(आसिफ इक़बाल डिजिटल एंपावरमेंट फ़ाउंडेशन में रिसर्च एग्जीक्यूटिव के रूप में काम करते हैं।)
(नोट: यह लेख डीइऍफ़ के कोविड-19 सीरीज का हिस्सा है.)