“बीमारी से लड़ें कि भूखमरी से. अच्छा किसको लगता है जान जोखिम में डाल कर खाना लेना. घर भी जाना चाहे तो उसके लिए भी पैसे नहीं हैं.”
आसिफ इक़बाल
(फोटो: विकिमीडिआ कॉमन्स)
(यह लेख फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित लेख का हिंदी अनुवाद है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें. This is a Hindi translation of the article first published in Firstpost. To read it in English click here.)
बिहार के आरा जिले के ललन यादव दिल्ली के वज़ीरपुर में मछली मोहल्ले में रहते हैं. ललन को कोरोना से अधिक रोज़गार की चिंता सता रही है. वह कहते हैं, “हमलोग मज़दूर आदमी कमायेंगे नहीं तो परिवार खायेगा क्या. मैं अपने घर में अकेला कमाने वाला हूँ. मार्च से काम नहीं मिला है. यहाँ पर हमारे साथ में 200 ऐसे मज़दूर होंगे, लोग भीख मांगने पर मज़बूर हैं. कोई सुनने वाला नहीं है.”
ललन 22 वर्ष पहले बिहार से रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली आ गए थे. 3 बच्चों के पिता ललन कहते हैं, “सरकार क्या मदद करेगी, हमारा काम किया हुआ पैसा ही दिलवा दे तो बहुत है. लॉकडाउन से पहले-पहले तक काम किया था. जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तो मालिक ने कहा कि कहीं मत जाना. पैसे मिल जायेंगे. कुछ पैसे दिए भी हैं. लेकिन अभी भी 2500 बाकी है. मालिक को फ़ोन करता हूँ तो फ़ोन नहीं उठाता है,” वह आगे जोड़ते हैं, “मार्च से पैसा नहीं भेज पाया हूँ परिवार को, घर पर भी राशन कार्ड नहीं होने के कारण राशन नहीं मिला है. स्थिति बहुत खराब है.”
दुनिया भर के सभी देश इस समय कोरोना वायरस के चपेट में हैं. भारत में भी इसके संक्रमण को रोकने के लिए लॉक डाउन की घोषणा केंद्र सरकार द्वारा की गयी थी, जिसके कारण आर्थिक गतिविधि रुक गयी थी. आर्थिक रूप से हाशिये पर खड़े लोगों की हालत बिगड़ती जा रही है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के आंकलन के अनुसार लॉकडाउन के कारण अप्रैल में 12 करोड़ से अधिक लोगों की नौकरियाँ चली गयी. 75 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते थे.
नोवेल कोविड-19 के चलते लंबे लॉकडाउन के कारण गांव-शहर के प्रवासी सड़कों पर आ गए हैं. आए दिन प्रवासी मजदूरों का जत्था सड़कों पर अपने गांव को लौटता दिखाई दे रहा है. लॉकडाउन के कारण जब रेलवे सेवाएं बंद थी तो मज़दूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल, साइकिल या जैसे भी मुमकिन हुआ शहरों से लौटने लगे. हालाँकि, बाद में सरकार ने श्रमिक ट्रैनें भी चलायी हैं.
स्ट्रैंडेड वर्कर एक्शन नेटवर्क द्वारा देश भर में 11,000 मज़दूरों से एकत्र किए गए डेटा के अनुसार तीसरे सप्ताह तक, 50% मज़दूरों के पास एक दिन से कम का राशन था. अधिक चिंता की बात यह है कि 96% को सरकार से राशन नहीं मिला, जबकि 70% को कोई पका हुआ भोजन नहीं मिला पाया है.
भूखे सोने पर मज़बूर हैं प्रवासी मज़दूर
ललन कहते हैं कि स्कूल में जो सरकारी भोजन मिलता है वही खाते हैं, वह भी रोज़ नहीं मिलता है. वह कहते हैं, “बीमारी से लड़ें कि भूखमरी से, अच्छा किसको लगता है किसी को जान जोखिम में डाल कर खाना लेना. घर भी जाना चाहे तो उसके लिए भी पैसे नहीं हैं.”
ललन का वेतन दिल्ली में निर्धारित न्यूनतम आय से भी कम है. ललन का मासिक वेतन 1100 रुपये प्रति माह है, जबकि दिल्ली में न्यूनतम वेतन अकुशल श्रमिकों के लिए 14,842 रुपये प्रति माह, अर्ध-कुशल श्रमिकों के लिए 16,341 रुपये प्रति माह और कुशल श्रमिकों के लिए 17,991 रुपये प्रति माह निर्धारित हैं. ललन कहते हैं, “स्टील के घिसाई का काम है, हाथ कट जाने का हमेशा खतरा बना रहता है. कोई सुरक्षा उपक्रम भी नहीं मिलता है.”
वहीं आज़ादपुर में दिहाड़ी-मज़दूरी करने वाली फूल कुमारी देवी को मकान के किराये की चिंता सत्ता रही है. उनके पति भी स्टील के कारखाने में काम करते हैं, उनको भी मार्च से कोई वेतन नहीं मिला है. वह कहती हैं, “सरकार की तरफ से कहाँ कौनो मदद मिला है, अनाज के लिए आधार कार्ड से ऑनलाइन रजिस्टर भी किये थे, लेकिन अभी तक कुछ नहीं मिला.” बैंक में जनधन अकाउंट नहीं होने कारण उनको नकद 500 रुपया की सहायता भी नहीं मिली.
प्रवासी मज़दूरों की क्यों है इतनी दयनीय स्थिति?
38 साल का राकेश दिहाड़ी मजदूर हैं, जो दिल्ली के इंदिरा विकास कॉलोनी में रहते हैं, जो प्रधानमंत्री-आवास से कुछ दूरी पर ही है. वह अपने पांच-सदस्यीय परिवार में एकमात्र कमाने वाले व्यक्ति हैं. निर्माण मजदूर के रूप में काम करता है. लॉकडाउन से पहले, नियमित दिनों में, वह प्रति माह 8,000-9000 रुपये कमाते थे,” उन्होंने कहा, “मैं 5,000 रुपये घर भेजता था और बाकी पैसे से यहाँ रहता था. मेरे पास अब कोई काम नहीं है. राशन खरीदने तक के पैसे उधार लिए हैं.”
राकेश ने आगे कहा, “मुझे नहीं पता कि मैं इस तरह से कब तक रह पाऊंगा. घर पर, मेरा परिवार भी भूखे मर जायेगा. मैंने घर लौटने के लिए ऑनलाइन पंजीकरण भी कराया था, लेकिन जा नहीं पाया.”
उन्होंने कहा, ‘कुछ लोगों को 5,000 रुपये की नकद सहायता मिली है. लेकिन मैं नहीं, हालांकि मैं भी एक निर्माण श्रमिक हूं.”
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर इनफॉर्मल सेक्टर & लेबर स्टडीज के प्रोफेसर अविनाश कुमार कहते हैं, “ठेकेदारी की बढ़ती प्रथा ने कल्याण उपकर अधिनियम, 1996 के तहत प्रदान होने वाली सामाजिक सुरक्षा को आम मज़दूरों की पहुँच से दूर कर दिया है. अधिकांश कंपनियों में, इन श्रमिकों का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है. लगभग सभी एक अनुबंध के आधार पर काम करते हैं. उन्हें सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं मिलता है. कोविड-19 की महामारी आने से पहले भी इन श्रमिकों का वर्षों से शोषण किया जा रहा है. कोविड-19 ने केवल जर्जर पड़ी व्यवस्था को उजागर किया है.”.
प्रवासी मज़दूरों के साथ काम करने वाली संस्था आजीविका ब्यूरो में सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड लेबर सॉल्यूशंस की प्रोग्राम मैनेजर अमृता शर्मा कहती हैं कि दो बातें हैं, सरकार की कितनी मंशा है इन प्रवासी मज़दूरों की सहायता करने की यह एक सवाल है, दूसरा की अगर कोई सहायता करना भी चाहे तो कैसे करेगी यह अलग सवाल है. प्रवासी मज़दूर काम की तलाश में शहरों में आते हैं. इन बड़े शहरों को बनाते हैं लेकिन उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती है. वह शहर के अलग-अलग कोनों में झुग्गियों में रहते हैं. प्रवासी मज़दूरों को गाँव में मिलने वाली सुविधाएँ जैसे खाद्य अनाज सुरक्षा, आवास, शौचालय के लाभ से नदारद रहते हैं.
वह कहती हैं, “सरकार अब तक यही पता करने का प्रयास कर रही है कि समस्या कितनी गंभीर है. सरकार के पास न तो इनका कोई आंकड़ा है, और न इन तक पहुँचने का कोई ढांचा. राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय भी प्रवासी मज़दूरों का कोई आंकड़ा इकठा नहीं करती है,” वह चीन से तुलना करते हुए कहती हैं, “चीन के पास एक ढांचा मौजूद है. चीन जब चाहेगा अपने प्रवासी मज़दूरों तक पहुँच सकता है. लेकिन हमारे यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है.”
असंगठित क्षेत्र के राष्ट्रीय उद्यम आयोग के अनुसार, अनौपचारिक क्षेत्र के केवल 8 प्रतिशत श्रमिक किसी भी सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत आते हैं. 47.41 करोड़ के कुल कार्यबल में से, 82.7 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है.
योजनाओं के उन तक नहीं पहुँच पाने का कारण बताते हुए अमृता कहती हैं, “अधिकतर योजनाएं डोमिसाइल सर्टिफिकेट (स्थायी पते से जुड़ा एक दस्तावेज़) से जोड़ कर बनायी जाती हैं. प्रवासी मज़दूरों के पास ऐसे आवासीय दस्तावेज़ नहीं होते हैं. जिसके कारण बुनियादी सुविधाएँ भी उन तक नहीं पहुँच पाती हैं,”, वह आगे कहती हैं, “प्रवासी मज़दूर अक्सर असंगठित क्षेत्रो में काम करने के कारण किसी संस्था से उनका कोई नियोक्ता आईडी भी नहीं होती है, और जो छोटे-छोटे कारखानों में काम करते हैं तो वो कॉन्ट्रैक्ट पर करते है, वहां भी उनकी कोई नियोक्ता आईडी नहीं होती है.”
अमृता कहती हैं, “मज़दूरों को बुनियादी हक़ तक लेने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. काम करने के समय को 8 घंटा करवाने के लिए मज़दूरों ने लम्बा संघर्ष किया है. काम किये हुए वेतन तक उनको नहीं मिलते पाते हैं. और सरकार जिस प्रकार महामारी के समय में श्रम कानून को खत्म या कमज़ोर करने का प्रयास कर रही है, इससे स्थिति और बिगड़ सकती है.”
कई राज्य जैसे गुजरात, हरयाणा इत्यादि श्रम कानूनों को ध्वस्त करते हुए कह रहे हैं कि ऐसा करने से निवेशकों को लुभाने में मदद मिलेगी. श्रम कानूनों को कमज़ोर करने से उद्योग कंपनी अपनी मर्ज़ी से नौकरी से निकाल सकती हैं.
मज़दूर किसान शक्ति संघटन से जुड़े निखिल दे कहते हैं कि सरकार कुछ कर ही नहीं रही है तो इन तक क्या पहुंचेगा. वह कहते हैं, “सरकार अनाज रख कर अनाज नहीं दे पा रही है. पैसे भी दिए हैं तो वो बहुत कम है. 500 रुपया दिया है, वह भी उन महिलाओं को जिनका जनधन अकाउंट है. ऐसे बहुत से परिवार हैं जिनके घर में एक भी जनधन खाता-धारक नहीं है. कईयों के तो खाते बंद हो गए हैं. ऐसे आपदा के समय में तो सरकार को खुल कर के मदद करने के लिए आना चाहिए. सरकार चाहती तो अलग-अलग माध्यम से सहायता कर सकती थी, लेकिन कोई सरकार कि ऐसी कोई मंशा नहीं दिखती है.”
सामजिक हिंसा के खतरे
निखिल दे कहते हैं, “सरकार ने आदेश दे दिया कि कंपनीयां उनको वेतन देगी, लेकिन कितनी कंपनीयों ने दिया है यह सब को पता है. किसी मज़दूर के बस की बात नहीं है इन कंपनीयों से पैसे ले पाना. जिनकी कोई ग़लती नहीं उनपर पर ही लॉकडाउन का सबसे अधिक प्रभाव पर रहा है. उनको राशन तक नहीं दिया और बंद कर दिया सरकार ने. अब वह अपने दम पर घर चले जाएँ और काम से काम जीवित रह लें, तो उनको घर नहीं जाने दिया जा रहा है,” वह आगे कहते हैं, “साफ़-साफ़ इनके साथ भेदभाव हुआ है. क्या इसी सरकार ने विदेश में फंसे लोगों के लिए जहाजें नहीं चलवाई हैं. छात्रों के लिए बसें नहीं चलवायी हैं. प्रवासी मज़दूरों को शोषण के लिए शहरों में रखा जाता है. अपने सामने यह मज़दूर अन्याय होते देख रहे हैं. कुछ कर भी नहीं पा रहे हैं, बस पुलिस की लाठियां खा रहे हैं.”
प्रवासी मज़दूर अक्सर जिन राज्यों में काम की तलाश में जाते हैं वहां के वोटर नहीं बन पाते हैं, शायद यह एक कारण के उन पर सरकारें भी ध्यान नहीं देती हैं के सवाल पर अमृता कहती हैं, “चुनावों में वोट न डाल पाने का मतलब यह नहीं कि प्रवासी मज़दूर अपनी पहचान को लेकर गंभीर नहीं होते हैं. लेकिन मध्य वर्ग के विपरीत शायद उनके लिए अपना रोज़गार ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा होता है,” वह कहती हैं, “मज़दूरों को सरकारों पर विश्वास कम है, इसलिए वह अपने घर जाना चाह रहे हैं. यह पलायन कोई भी दिशा ले सकता है. सूरत में हुई हिंसा या मुंबई में जमा हुई हज़ारों की संख्या में भीड़ की.”
प्रोफेसर अविनाश कहते हैं, “लोकतंत्र में अगर हर फैसला कौन वोटर है और नहीं इसको देख कर अगर लिया जायेगा तो उसे लोकतंत्र तो नहीं कहा जा सकता. बुनियादी बराबरी का अधिकार नहीं दिया जाये तो लोकतंत्र मात्र चुनाव जीतने और हारने भर का मशीन हो कर रह जायेगा,” वह कहते हैं, “पुलिस आती है तो कभी उसका ठेला उल्टा देती है, तो कभी कोई अधिकारी उसकी झोपडी तोड़ जाता है. इन मज़दूरों का सम्बन्ध सरकार से ऐसा ही होता है. ऐसे में सरकार के द्वारा किये गए वादों पर विश्वास करना थोड़ा कठिन है.”
सहयता के सन्दर्भ में वह कहते हैं, “सरकार को, खास कर केंद्र की सरकार को इन मज़दूर-ग़रीबों की सहायता करनी होगी. सभी की करनी होगी.”
(लेखक डिजिटल एम्पोवेर्मेंट फाउंडेशन में रिसर्च एक्सक्यूटिव के तौर पर काम करते हैं.)
(नोट: यह लेख डीइऍफ़ के कोविड-19 सीरीज का हिस्सा है.)