जहां सोशल मीडिया भारतीय राजनीति का नक्शा बदलने को तैयार है, वहीं इसने कभी-कभार इस्तेमाल करने वाले राजनीतिज्ञों या इसका बेजा इस्तेमाल करने वालों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है सामाजिक कार्यकर्ता से राजनेता बने केजरीवाल, जिन्होंने ट्विटर, फेसबुक की मदद से सड़क से सत्ता तक का सफर महज डेढ़ साल में तय कर ली है। हालांकि, यह भी सच है कि अकेले सोशल मीडिया पर प्रशंसकों की संख्या से चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं। हालांकि, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पार्टी की रणनीति से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने और उनकी समस्याओं को जानने में मदद मिली है।
हाल में जो कुछ भी हो रहा है यह सिर्फ एक मिसाल है। आज लोगो ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल तो धडल्ले से करना सीख जरूर लिया है मगर वहीँ इसकी संवेदनशीलता को नज़रंदाज़ किया है। जिसका रिजल्ट आज हमारे सामने है।
यही वजह है कि चंद महीनों में फर्श से अर्श पर पहुंचने वाली आम आदमी पार्टी और उनके मुखिया केजरीवाल के लिए भी ये मुश्किल का सबब बन गया है। पिछले दिनों ट्विटर पर चल रहे #QuitAAP यानी आप छोड़ो और#AAPdrama (आप ड्रामा) जैसे हैशटैग ट्रेंड इस बात को पूरी तरह मुहर भी लगाते हैं। हालांकि इनमें से कुछ के पीछे विरोधी पार्टियों के समर्थक हो सकते हैं लेकिन मीडिया में भी आप की काफ़ी आलोचना हुई थी।
दरअसल, 20 और 21 जनवरी को दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने जिस कदर दिल्ली पुलिस पर नियंत्रण हासिल करने की मांग के साथ धरना दिया, उसकी वजह से न सिर्फ़ कई मेट्रो स्टेशन बंद रहे बल्कि शहर के कई हिस्सों को भी बंद करना पड़ा था, जिसका सीधा असर आम लोगों पर पड़ा। जिसके बाद आम लोग केजरीवाल को लेकर कई गंभीर सवाल उठा रहे हैं।
बेशक, आजादी के करीब साढे छह दशकों में सूचना और तकनीक ने कई अहम कीर्तिमान स्थापित किये और कई ऊंचाईयों को भी छुआ। लेकिन, दुर्भाग्यवश आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में अगर सबसे ज्यादा कीमत किसी को चुकानी पड़ी है तो वो है ग्रामीणवासी, जिसके पास न तो सोशल मीडिया की पहुंच है और नाहिं सूचना क्रांति । जहां सोशल मीडिया ने सूचना जगत को हिला रखा है, वहीं देश की आत्मा और वास्तविक भारत कहे जाने वाले गांव भारी उपेक्षा के शिकार हैं। गांवों की इक्का-दुक्का खबरें ही कभी-कभी देश की खबर बन पाती है, वरना ज्यादातर तो गांव की डेहरी पर ही दम तोड़ देती हैं। किसान हो या स्थानीय व्यवसायी सबकी तरक्की का एक ही मूल मंत्र है सूचना। अगर वक्त रहते किसी को सूचना मिल जाती है तो जरूर उस सूचना का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करता है। चाहे वो सूचना खेती के लिए हो या व्यापार से जुड़ी हो सबका सीधा असर गांव के विकास औऱ उन्नती पर ही पड़ता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग्स जैसे सोशल मीडिया के चैनलों ने लोगों को सार्वजनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर निकलने के लिए प्रेरित किया। यह सच है कि सोशल मीडिया के रूप में आज हम सबको ऐसा हथियार मिल गया है, जिसके जरिए हम अपनी आवाज आसानी से पहुंचा सकते हैं। लेकिन इससे ज्यादा आज जरूरत इस बात की है कि हम अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करते समय अपने मूल्यों को भी समझें, ताकि हम बेहतर ढंग से इसका इस्तेमाल कर दो समाज और संस्कृतियों की खाई को पाट सकें और अपने समाज को उन्नति और विकास की पटरी पर दौड़ा सकें।
इसकी शक्ति को देखते हुए इसे अब शहर से गांव की ओर ले जाने की जरूरत है, ग्रामीणों को भी इसकी ताकत का एहसास कराया जा सके। लेकिन, इससे पहले हमें हर गांव-पंचायत को इंटरनेट से जोड़ना होगा, जो किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। हालांकि, डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन पिछले एक दशक से हर गांव और ग्रामीणों को इंटरनेट से जोड़ने और सूचना संपन्न बनाने के लिए लगातार प्रयासरत है, जिसके तहत करीब 560 पंचायतों और 1300 ग्रामीण गैर सरकारी संस्थाओं को ऑनलाइन किया जा चुका है।
इसके अलावा 20 राज्यों में 32 सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र चलाए जा रहे हैं जहां गांवों के लोगों को कंप्यूटर एवं इंटरनेट शिक्षा के साथ-साथ हर तरह की सूचना दी जाती है। 2014 में ऐसे ही करीब 100 और सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र खोले जाने की योजना है।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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