पिछले दिनों गांधी फेलोशिप प्राप्त कई नौजवानों से मिलने का मौका मिला। इस फेलोशिप के तहत उन्हें यह जिम्मेदारी दी जाती है कि वे गांवों की आधारभूत सामाजिक समस्याओं को समझें और उनका समाधान तलाशें। इन्हीं युवाओं में एक थे अश्विनी तिवारी। बी टेक की डिग्री लिए इस युवा ने इसी वर्ष अपनी फेलोशिप पूरी की है।
अश्विनी की इच्छा यह जानने में थी कि ग्रामीणों का रहन-सहन बदलने में तकनीक और इंटरनेट कितने कारगर होते हैं? इस अध्ययन के लिए उन्होंने राजस्थान के चुरू जिले में ढाणी पूनिया गांव को चुना था।
ढाणी पूनिया गांव में 168 परिवार हैं, जबकि आबादी 1,022 है। इनमें से 145 जाट परिवार हैं व बाकी अनुसूचित जाति के। इनमें से किसी भी घर में इंटरनेट नहीं है, इसलिए जब भी किसी को इंटरनेट की जरूरत होती है, तो वह कम से कम 25 किलोमीटर की यात्रा करता है। यहां पर सिर्फ एक उच्च प्राथमिक स्कूल है। अस्पताल या ई-मित्र का कोई नामोनिशान नहीं, जबकि नागरिकों की सहूलियत के लिए राज्य सरकार ने 40,000 ई-मित्र केंद्र बनाए हैं।
हर मोबाइल कंपनी की पहुंच तो यहां है। मगर हां, कनेक्टिविटी में दिक्कतें आती हैं और टू-जी सर्विस ही दी जाती है। यह माना जाता है कि स्थानीय पंचायत डिजिटल हो चुकी है, मगर ज्यादातर समय यह भ्रम साबित होता है। लिहाजा लोग इंटरनेट सेवा पाने के लिए 50 रुपये खर्च करके राजगढ़ या तारानगर जाने को मजबूर हैं। वहां उन्हें एक प्रिंट आउट के लिए पांच रुपये और एक घंटे इंटरनेट इस्तेमाल करने के लिए 20 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। तिवारी का सर्वे बताता है कि ढाणी पूनिया का हर परिवार औसतन सालाना 5.4 घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करता है। अब अगर इसे 165 परिवार के हिसाब से देखें, तो यह सालाना 890 घंटे बैठता है।
ये वे लोग हैं, जो गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं। इनकी आमदनी 200 रुपये प्रतिदिन के करीब है। इंटरनेट उपयोग करने के लिए इन्हें आने-जाने व तमाम मदों में जितने पैसे खर्च करने पड़ते हैं, वह इनकी एक दिन की दिहाड़ी से भी अधिक है। दो सदस्यों वाला सिर्फ एक परिवार 100 रुपये इंटरनेट मद में खर्च करता है, बाकी सारे परिवार कम से कम 400 रुपये सालाना इस मद में खर्च कर रहे हैं। सबसे ज्यादा खर्च, 4,000 रुपये रणवीर का परिवार कर रहा है।
उसके परिवार में10 लोग हैं, जो पूरे साल लगभग चार घंटे इंटरनेट पर बिताते हैं। इसका अर्थ यह है कि ढाणी पूनिया जैसा एक छोटा-सा गांव इंटरनेट का उपभोग करने के लिए सालाना 1.7 लाख से अधिक खर्च करता है, जबकि यह सेवा उन्हें मुफ्त में या फिर नजदीकी पंचायत में नाम-मात्र के खर्च पर मिलनी चाहिए। यह तस्वीर बताती है कि गांवों से मोहभंग होने में इंटरनेट का न होना कितना मायने रखता है। निश्चय ही, गांवों को इंटरनेट से जोड़ने से ये पैसे तो बचेंगे ही, ग्रामीणों तक सूचनाएं भी जल्दी पहुंचेंगी।