महाराष्ट्र का वो जिला जिसके उत्तर में अहमदनगर, पूर्व में अहमदनगर और शोलापुर, दक्षिण में नीरा नदी एवं सतारा और पश्चिम में कोलाबा हैं। उसके पश्चिमी भाग पश्चिमी घाट पहाड़ की वजह से ऊँचा नीची जरूर है, लेकिन पश्चिम में भोर घाट रेल और सड़क का मुख्य द्वार है। ये वही जिला है जहां मई में ताप 41डिग्री सें. तक हो जाता है और प्राचीन काल से फौज की छावनी के लिए मशहूर है। मानसून मध्य जून से शुरू होकर सितंबर के अखिर तक रहता है, जिसका नाम है पुणे। इस जिले के आसपास कई गांव हैं जहां के ज्यातर लगो खेती और मजदूरी कर अपनी जिंदगी चलाते हैं। 2011 जनगणना के अनुसार जहां पुणे जिला में शहरी आबादी 61 फीसदी है तो वहीं 39 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं। अगर आंकड़ों की बात करें तो पुणे जिला के अंतर्गत आनेवाले गांव में कुल आबादी 3,678,226 है जिसमें 1,903,440 पुरुष और 1,774,786 महिलाएं हैं। शिक्षा के मामले में भी गांवों के लोग शहरी आबादी के मुकाबले काफी पीछे हैं।हालांकि, ये जिला भारत के उन 24 अग्रणी जिलों में से एक है, जहां कई बड़े बड़े शिक्षण संस्थान हैं। फिर भी यहां साक्षरता पुणे के शहरी इलाकों तक ही सीमित है। जिसका एक मात्र कारण सरकारी इच्छा शक्ति की कमी है। लेकिन, कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने इस जिले के गांवों को सशक्त बनने की पहल जरूर की है।
इसका एक उदाहरण है तालुका मुलशी। शहर से महज 45 किलोमीटर दूर मुलशी तालुका में कई छोटे बड़े गांव बसे हैं। जहां हर गांव में करीब 100 परिवार की आबादी है। और इन गांवों के सभी परिवार के लोग खेती या मजदूरी कर अपना गुजर बसर करते हैं। गांव में हर घर का बच्चा या तो आर्थिक तंगी का शिकार है या उचित मार्ग दर्शन की कमी का। कुल मिलाकर उनके पास सिर्फ भगवान की आस है या फिर अपनी दयनीय स्थिति को ईश्वर की इच्छा बताने को मजबूर हैं। वैसे भी हमारे ग्रामीणों की जिंदगी बहुत दर्दनाक है और उनके हितों की बहुत उपेक्षा हुई है।
लेकिन, कहते हैं न जिसका कोई नहीं सुनता उसका ईश्वर सुनता है। हाल के समय में बदलाव के कुछ संकेत भी मिलने लगे हैं। और अब इस बारे में यह समझ बनने लगी है कि ग्रामीण और किसान कई कठिनाइयां व उपेक्षा सहते हुए भी समाज में मूल्यवान योगदान देते रहे हैं। इसी समझ के आधार पर समाज सेवियों द्वारा कुछ ऐसी कोशिशें शुरू की गई हैं जो ग्रामीणों की आजीविका को बेहतर बनाना चाहते हैं और साथ ही इन कोशिशों को शिक्षा और रोजगार के व्यापक उद्देश्यों से जोड़ना चाहते हैं। ऐसी ही एक उम्मीद भरी कोशिश है साधना विलेज स्कूल।
एक गैर सरकारी संस्था द्वारा संचालित साधना विलेज स्कूल मुलशी तालुका के एक छोटे से गांव कूले में स्थित है, जहां गांव के गरीब बच्चे अपनी पढ़ाई करने आते हैं। शहरी स्कूली बच्चों से बिल्कुल जुदा यहां पढ़ने वाले बच्चे किताबों का बोझ नहीं उठाते, बल्कि जमीन को कॉपी और आसमान को अपनी किताब समझते हैं।
हालांकि फिलहाल इस विलेज स्कूल में 65 बच्चे हैं, जो सुबह 10 बजे पहुंचते हैं औऱ शाम 4 बच्चे अपने घर को लौट जाते है। और सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात ये भी है कि यहां पढ़ाने वाला कोई नियमित शिक्षक नहीं हैं। आज ये विलेज स्कूल एक ऐसी जगह बन चुका है जहां प्रोफेशनल्स अपनी भाग-दौड़ की जिंदगी को छोड़ समाज सेवा की भावना से पहुंचते हैं और महीनों और सालों बच्चों के बीच रहते हैं। इनमें कोई इंजिनियर, मैनेजमेंट प्रोफेशनल है तो कोई पर्यटक या फिर आईटी प्रोफेशनल। इन सबने अपनी बड़ी बड़ी नौकरी छोड़ कुछ महीने या फिर कुछ साल के लिए स्वेच्छा से सहयोग देने विलेज स्कूल में बच्चों को पढ़ाते है। अपने शहरों, देशों में इस्तेमाल नई तकनीक और ज्ञान बांटकर बच्चों को दूसरी दुनिया से वाकिफ कराते हैं, ताकि ये ग्रामीण बच्चे भी खेल-खेल में हर तकनीक और ज्ञान की जानकारी पा सकें। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने भी सहयोग के रूप में 10 टैबलेट दिए हैं, ताकि बच्चों को एक नई टेक्नॉलॉजी से रूबरू कराया जा सके। हालांकि, साधना विलेज स्कूल के संस्थापक और संचालक किसी भी नई तकनीक का इस्तेमाल आम लोगों की तरह नहीं, बल्कि कुछ अलग हटकर करना चाहते हैं। इस बुनियादी सोच के पीछे संचालक जीनेन का अहम रोल है। उनके मुताबिक किसी भी तकनीक का इस्तेमाल हमें सिर्फ डाउनलोड या अपलोड तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसका इस्तेमाल एक खास अंदाज में लर्निंग और अनलर्निंग के लिए होना चाहिए।
इसी अनोखी सोच को अमल में लाने के लिए स्कूल में पढ़ाने वाले हर उम्र और हर हुनर के शिक्षक हैं जो अपने अनुभव को बच्चों से साझा करते हैं। जहां शिक्षक ही नहीं गांव के बच्चे भी हर रोज कुछ नया करने की कोशिश करते हैं और ऐसे में यहां आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का होना जरूरी था। हालांकि, अब तक ये बच्चे अपने लिए ईट औऱ लकड़ी से अस्थायी क्लास रूम तैयार करने से लेकर, काशीदाकारी, सिलाई,बुनाई औऱ अनेकों हुनर सीखते सीखाते रहे हैं। लेकिन, शायद आने वाले दिनों में टैबलेट, लैपटॉप, इंटरनेट के जरिए ये ग्रामीण बच्चे और भी ज्यादा जागरूक और सूचना क्रांति का हिस्सा बन सकेंगे।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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