वैसे तो अकसर मैं ‘समाज में सबसे नीचे’ फ्रेज का इस्तेमाल दुनिया के उन तबकों के लिये करता रहा हूं, जो 2 डॉलर प्रति दिन से भी कम पर गुजारा करते हैं। लेकिन, मध्य प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा, जहां हर घर से हथकरघा चलने की आवाज सुनाई देती है। जहां एक ऐसी बेशकीमती चीज तैयार होतीं है जिसकी चमक-दमक से बॉलीवुड भी अछूता नहीं हैं।
लेकिन, इन्हीं आवाजों के बीच वही बुनकर की हर पल दम तोड़ते नजर आते हैं। जहां हर घर बदहाली का शिकार है। जिसे देखकर ‘समाज में सबसे नीचे’ जैसा फ्रेज भी मुझे नाकाफी मालूम पड़ता है। दरअसल, मैंने इन हालात का जिक्र करना इसलिए जरूरी समझा, ताकि मैं चर्चा कर सकूं कि कैसे हम गरीबी, भ्रष्टाचार, बदहाली को दूर कर सकते है।
अशोक नगर जिले का वो छोटा सा कस्बा जिसे लोग चंदेरी के नाम से जानते हैं, जिसकी पहचान देश ही नहीं, दुनियाभर में हाथ से तैयार साड़ियों की वजह से होती है। साड़ियों का जिक्र हो और चंदेरी का नाम न आए, ये हो नही सकता। चंदेरी की साड़ियां आम से लेकर खास लोगों की पहली पसंद बन चुकी है। साड़ियां बुनना चंदेरी के लोगों के रोजगार का एक बड़ा जरिया है। सरकारी आंकड़ो की माने तो यहाँ की आबादी का साठ प्रतिशत हथकरघे के बुनकर रोजगार से जुड़ा है ।
यू तो चंदेरी में साड़ियों के जरिए सलाना करीब 70 करोड़ रु. का कारोबार होता रहा है। लेकिन, फिर भी बुनकर अपने ख़ून-पसीने से विकसित अपनी इस कलाकारी से ख़ुद ही नाता तोड़ने के लिए मजबूर हैं। सूत व्यापारियों एवं साड़ी निर्माताओं के लिए 16-16 घंटे हथकरघा चलाने वाले बुनकर बिचौलियों की हेराफेरी के शिकार हैं। जिसकी वजह से बड़ी मुश्किल से वो दो जून की रोटी जुटा पाते हैं। शोषण और तंगहाली ने बुनकरों को इतना बेरहम बना दिया है कि वे अपने छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल भेजने या खेलने-कूदने देने के बजाय काम में लगा देते हैं, ताकि वे भी चार-छह रुपये कमा सकें।
हालांकि मैं अकसर सूचना और तकनीक का इस्तेमाल कर विकास की बात करता रहा हूं, और हमेशा से ही सूचना व उस तक पहुँच की शक्ति को समझा है। यहां तक कि इंस्टिच्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट आनंद और इंडियन इंस्टिच्यूट ऑफ मैनेजमेंट कोलकाता की एक रिसर्च ने भी मेरे इस विश्वास को सही साबित किया है। इंस्टिच्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट और इंडियन इंस्टिच्यूट ऑफ मैनेजमेंट के शोध ‘ए केस स्टडी ऑन डिजिटल एम्पावरमेण्ट फाउण्डेशन- चेदेरियाँ प्रोजेक्ट’ में लेखक का कहना है कि “समाज के नीचे के तबके में बाजार को बढाया जा सकता है अगर जो वस्तुएँ पैदा करते हैं व जो उनकी खपत करते हैं के बीच का अंतर इन तरीकों से पट जायेः 1) उत्पादकों व उपभोक्ताओं के बीच दूरियाँ मिट जाये 2) उत्पादव व खपत के बीच समय का अंतर समाप्त हो जाये 3) जो सूचना की खाई है उत्पादकों व उपभोक्ताओं के बीच उत्पाद व मार्केट परिस्थितियों के कारण वो मिट जाये, और (4 पैसे की कमी यानी उपभोक्ताओं की खरीदने की क्षमता जब कि वो अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की कोशिश कर रहे हों ।”
करीब 3 साल पहले यानि 2009-10 में जब चंदेरी में चंदेरियाँ प्रोजेक्ट शुरू हुआ था, तो वहां के बुने हुए उत्पादों का कुल बाजार सिर्फ 70 करोड़ रूपये का था और हर बुनकर घर औसतन 3000 रु. से भी कम प्रति माह की आय पर गुजारा कर रहा था। पूरा चंदेरी बुनकरों, आपूर्ति करने वाले, बाजार, रिटेल व उपभोक्ताओं के बीच सूचना के तालमेल की कमी से परेशान था। आपूर्ति करने वाले व मास्टर बुनकर बाजार को अपने इशारों पर चलाते थे, और इसी वजह से उन्हे पूरे बाजार का ज्ञान, माँग व आपूर्ति और खासकर के डिजाइन की माँग की जानकारी बहुत अच्छी थी।
लेकिन, नई रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ 3 सालों में चंदेरी के बुनकरों की कुल आमदनी ही नहीं, कारोबार भी दुगनी से भी ज्यादा हो गई है। जहां बुनकर परिवारों की मासिक आय 6000 रु. हो गई है वहीं कारोबार भी बढ़कर150 करोड़ तक पहुंच गया है। ये सब पिछले 3-4 साल की हमारी मेहनत का नतीजा है। जहां किसी वक्त शिक्षा सिर्फ स्कूलों तक सीमित थी, वहीं आज हर बच्चा कंप्यूटर की अच्छी जानकारी के साथ अलग-अलग रोजगार में व्यस्त है। कभी चंदेरी के लोगों को कंप्यूटर और इंटरनेट की अहमियत का अंदाजा तक नहीं था, आज वहीं हमारी कोशिश से 13 सरकारी स्कूल और हेल्थ सेंटर कंप्यूटर और इंटरनेट के जरिए पुरी दुनिया से जुड़ गए हैं। कभी बुनकर हाथ से डिजाइन शीट बनाया करते थे, लेकिन अब उनके डिजाइन कंप्यूटर पर तैयार किए जाते हैं। यही नहीं, डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने चंदेरिया प्रोजेक्ट के तहत बुनकरों को कंप्यूटर डिजाइन प्रशिक्षण के साथ-साथ ऑनलाइन बाजार भी मुहैया कराया है। इसके अलावा डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने वायरलेस के जरिए चंदेरी को इंटरनेट से जोड़ रखा है।
मेरी राय मानें तो, देश भर में टेक्सटाइल से जुड़े कारोबार करने वाले करीब 400 समूह, जिनका कुल कारोबार करीब 60,000 करोड से भी ज्यादा है, उन्हें कपड़ा मंत्रालय कंप्यूटर प्रशिक्षण दे। इस तरह डिजिटलीकरण से उनका राजस्व आसानी से दोगुना हो सकता है और साथ ही सूचना के तालमेल की कमी को भी दूर किया जा सकता है।
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