राजस्थान में भारत-पाक सीमा से करीब 50 किमी. पहले एक गांव है साम गांव। अगर रेतीले रेगिस्तान के बीच बसे गांवों में आपको जाने का मौका मिले, तो आपको वहां एक अजीबो-गरीब मंजर देखने को मिलेगा। इस गांव में दूर-दूर बसे बिना छत के अस्थायी घरों में आदमी मिले या न मिले, घर में मौजूद चारपाई पर एक कुत्ता जरूर बैठा मिलेगा। यहां रहने वाले दिन की गर्मी में झुलसने के साथ साथ और सर्दियों में उनकी पूरी रात ठिठुरन में ही गुजार देते हैं। ये एक ऐसा समुदाय है जिनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता। इसी वजह से ये समुदाय घुमक्कड़ के नाम से भी मशहूर है। घुमक्कड़ समुदाय के लोग जहां भी डेरा डालते हैं वहां कुछ महीने जरूर रहते हैं। राजस्थान में इनकी तादाद अच्छी खासी है।
दरअसल, इन घुमक्कड़ों की जिंदगी और रहन-सहन का तरीका भी काफी अजीबो-गरीब है। इस सिलसिले में मैंने भी जानकारी जुटाने की कोशिश की, तो इनकी दास्तान ए जिंदगी सुनकर हैरान रह गया। इनमें से कुछ हैं इनकी रीति रिवाज और अनोखी परंपराएं।
वैसे तो दहेज में कुत्ता या गधा देने की बात कही जाए तो शायद हर कोई इसे मजाक समझेगा। लेकिन, राजस्थान में घुमक्कड़ यानी जोगी समुदाय में ऐसी परंपराएं आम बात है। इतना ही नहीं दो साल तक शादी के लिए प्रस्तावित औरत को मांगकर खिलाने की शर्त पूरी करने के बाद गर्भावस्था में सियार का मांस खिलाने का वादा ही उनकी खुशहाल जिन्दगी का आधार बनता है।
कालबेलिया नाम से मशहूर इस जनजाति के लोग दशकों से बीन की धुन पर साँप का खेल दिखाकर अपना पेट भरते रहे है। शहर शहर घूम कर रोजी-रोटी कमाने वाले इन सपेरों के साथ कालबेलिया शब्द किस तरह जुड़ा इसके पीछे भी एक वजह है। सर्प को “काल” या “मृत्यु” भी कहा गया है और सर्प (काल) को पिटारी में बंदी बना कर रखने के कारण सपेरे “काल बेङिया” या “काल बेलिया” कहलाने लगे।
पुराने जमाने में पश्चिमी राजस्थान में घुमक्कड़ और भीख मांगकर गुजरबसर करने वाले जोगी या कालबेलिया जनजाति के लिए ऐसी परंपराएं आम बात रही है । भले ही इन पर दूसरे लोग विश्वास करें या नहीं।
लेकिन, अब सब कुछ बदल चुका है। आज कालबेलिया समुदाय के लोगों के हाथ में तबला, हार्मोनियम अब बीन की जगह ले चुका है और सांप की जगह ले चुकी हैं कालबेलिया समुदाय की लड़कियां।
या यूं कहें कि इस घुमक्कड़ जनजाति ने वक्त के साथ अपने पेट पालने के तरीके से लेकर खुद को बदल लिया। अब इस व्यवसाय में मेहनत ज्यादा और कमाई कम होने की वजह से वो सांपों के खेल की जगह नाच-गानों पर ज्यादा निर्भर रहने लगे हैं। यही नहीं राजस्थान का कालबेलिया नृत्य अब यूनेस्को की विरासत सूची में भी शामिल हो चुका है।
लेकिन, अगर कुछ नहीं बदला तो वो हैं उनकी बदहाल जिंदगी। इस जनजाति के ज़्यादातर लोग आज भी कच्ची बस्तियों में गंदगी के बीच गुजर-बसर करने को मजबूर हैं और जिंदगी चलाने के लिए उन्हें एक जगह से दूसरी जगह भटकना भी पड़ता हैं।
पहले भी चंद पैसों के लिए सांप पकड़ने से लेकर, बिन की धुन पर सांप नचाते थे। आज भी चंद पैसों के लिए तबले की ताल औऱ हारमोनियम की धुन पर अपनी पत्नी और बेटियों को नचाते हैं। पहले मुहल्ले, गांवों में सांप का खेल दिखाते थे औऱ आज पंचसितारा होटलों और रिसॉर्ट में अपनी बेटियों,पत्नी को नचाते हैं। और इसमें भी सभी को रोजाना काम मिलने की कोई गारंटी नहीं है। अगर कोई भाग्यशाली है तो वो किसी पंचसितारा होटल में अपना नृत्य दिखाकर ज्यादा से ज्यादा 500 रुपए तक कमाई कर सकता है। वरना, उन्हें ऐसे मौके के लिए हफ्तों इंतजार करना पड़ सकता है। ऐसे में 6-7 सदस्यों वाले परिवार को चलाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
जिसका नतीजा ये है कि इस समुदाय के लोग किसी न किसी बुरी आदत का शिकार हो जाते हैं,क्योंकि उनके पास कमाई का कोई दूसरा जरिया नहीं होता। उन्हें जीने के लिए किसी तरह कुछ पैसों का इंतजाम करना जरूरी होता है।
अफ़सोस की बात ये है कि जो नृत्य आज राजस्थानी लोकसंगीत की पहचान बन चुका है, उसके फ़नकारों की ही कोई पहचान नहीं। कबीलाई संस्कृति से निकलकर कालबेलिया नृत्य की चमक बिखेरने वाले युवक-युवतियां चाहते हैं कि उनकी जिंदगी में भी समाज के दूसरे लोगों की तरह थोड़ी-सी रोशनी भर जाए। लेकिन, किसी को कालबेलिया के उत्थान की फ़िक्र नहीं।
तकनीक और इंटरनेट युग में आज जरूरत है उन्हें भी समाज के मुख्यधारा से जोड़ने की। इससे न सिर्फ उनका विकास होगा, बल्कि सांपों के साथ दिन-रात का वास्ता रखने वाले कालबेलिया समुदाय के हुनर (विशेषोपचार विधि, कालबेलिया नृत्य) का फायदा दूसरों को भी मिल सकता है। साथ ही उन्हें रोजगार के नए अवसर भी मिल सकेंगे।
हालांकि, आज भी विदेशों में कालबेलिया नृत्य की काफी मांग है, जिसके लिए वो सलाना वो करीब 5-6 महीने विदेशों में ही गुजारते हैं। लेकिन, इससे पहले जरूरी संचार और कागजातों को पूरा करने के लिए वो दूसरों से कंप्यूटर, इंटरनेट के जरिए मदद लेते हैं। इसी के मद्देनजर डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने फैसला किया है कि कालबेलिया की नृत्य कला को तकनीकी रूप से संरक्षित करेगा और उन्हें तकनीकी ज्ञान भी दी जाएगी ताकि दुनिया के किसी भी कोने में तकनीकी रूप से वो किसी के मोहताज न रहें। इसके लिए जैसलमेर और जोधपुर में 3 ऐसे केंद्र खोलने की योजना है जहां कंप्यूटर शिक्षा के साथ साथ उनकी कला का डिजिटलीकरण औऱ इंटरनेट के जरिए पुरी दुनिया में प्रचार प्रसार भी हो सकेगा।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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