वैसे तो साल 2013 कई मायने में महत्वपूर्ण है, लेकिन खासकर सूचना तकनीक के क्षेत्र के लिए साल 2013 कुछ खास ही रहा है। इसी साल 1 जनवरी 2013 को इंटरनेट ने जहां अपने 30 साल पूरे कर लिए, वहीं परम्परागत कैमरे में इस्तेमाल होने वाली कोडैक्रोम फिल्मों से तस्वीरें विकसित करने वाली दुनिया की अंतिम प्रयोगशाला ड्वेन्स फोटो बंद हो गई। जहां एक तरफ फैक्स अब अपनी अंतिम सांसे गिनने को मजबूर है तो वहीं 160 साल पुरानी टेलीग्राम सेवा यानी तार 15 जुलाई 2013 को बंद होने को है। और फिर हमें ये कभी सुनने को नहीं मिलेगा कि डाकिया आया-तार लाया।
खैर, ये तो होना ही था। परिवर्तन ही संसार का नियम है। वक्त के हिसाब से सबको बदलना पड़ता है, वरना उसे जाना पड़ता है। ऐसा ही कुछ हुआ है टेलीग्राम सेवा यानी तार के साथ। स्मार्टफोन, ई-मेल और एसएमएस जैसे आधुनिक माध्यमों के सामने टेलीग्राम सेवा फ्लॉप हो चुकी थी। व्यावसायिक रूप से घाटे का सौदा बनी टेलीग्राम सेवा को एक न एक दिन बंद होना ही था। कभी तेजी से संदेश पहुंचाने का सबसे अहम जरिया थी टेलीग्राम सेवा, जिसने 160 साल का लंबा सफर तय किया।
देशभर में खुशी और गम दोनों में कोई भी खबर तेजी से पहुंचाने का जरिया रही वही टेलीग्राम सेवा आज इंटरनेट के आधुनिक दौर में अपनी हार मान चुकी है। और इस तरह मीलों के फासले को गिनती के शब्दों से पाटने वाले तार का आखिरी खत आ ही गया। जिसकी एक बड़ी वजह है संचार क्रांति।
संचार क्रांति के इस जमाने में अब टेलीग्राम सेवा का ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया जाता। एक आंकड़े के मुताबिक आगरा में 1980 में हर रोज टेलीग्रामों की संख्या 15000 से ज्यादा थी, अब केवल 40-50 टेलीग्राम होते हैं। जबकि अंतर्राष्ट्रीय टेलीग्राम साल में एक या दो होते हैं। कुल मिलाकर देशभर में एक साल में करीब 5 हजार ही तार भेजे जाते हैं जिनसे सिर्फ 75 लाख की आमदनी होती है, जबकि इस सेवा को चलाने और इसके प्रबंधन पर खर्च 100 करोड़ रुपए बैठता है।
यही वजह है कि टेलीग्राम सेवा को जारी रखना व्यवसायिक रूप से घाटे का सौदा साबित हो रहा था। इसी के मद्देनजर, आखिरकार सार्वजनिक क्षेत्र की दूरसंचार कंपनी बीएसएनएल ने 15 जुलाई 2013 को इसे औपचारिक रूप से बंद करने का फैसला कर ही लिया। इसके साथ ही 15 जुलाई से बीएसएनएल के तहत संचालित सभी टेलीग्राफ ऑफिस टेलीग्राम की बुकिंग बंद कर देंगे।
आज टेलीग्राम भले टेलीफोन या इंटरनेट से हार मान गया हो, लेकिन अपनी शोहरत के दौर में उसका भी गजब का जलवा रहा। वक्त के पन्नों पर अब टेलीग्राम की इबारत भले धुंधली पड़ गई हो, लेकिन इसकी ऐतिहासिक-सामाजिक अहमियत और समृद्ध विरासत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। आज भी सेना अपने संदेश तार के जरिए ही भेजते हैं। खासकर उन गांवों में जहां आज भी बिजली औऱ इंटरनेट की सुविधा नहीं है। भारत में करीब 50 हजार ऐसे गांव हैं जहां संचार का कोई संसाधन नहीं है। वहां के लोग आज भी तार यानी टेलीग्राम के जरिए ही संदेश पाते हैं। यही नहीं, बल्कि इसकी अहमियत का इतिहास भी गवाह है।
स्वतंत्रता की पहली लड़ाई में भी इसी टेलीग्राम सेवा के जरिए अंग्रेजों ने क्रांति को कुचलने में सफलता हासिल की थी। साल 1853 में देश में पहली बार टेलीग्राम सेवा आगरा से कोलकाता के बीच शुरू हुई थी। अंग्रेज सरकार भी अपने सारे दस्तावेज इसी के जरिए भेजती और मंगाती थी। आजादी के बाद भी लोगों ने इसका खूब फायदा उठाया। यहां तक कि समंदर में सबमरीन केबिल डालकर विदेशों से भी टेलीग्राम मंगाए जाने लगे। टेलीग्राम सेवा शुरू होने पर आगरा एशिया का सबसे बड़ा ट्रांजिट दफ्तर था। यहां से रावलपिंडी तक लाइन थी और यह 24 घंटे संचालित होता था।
जनवरी 1985 में भारत सरकार ने डाक विभाग और दूरसंचार विभाग को अलग कर उनका पुनर्गठन कर दिया। इसी बीच संचार क्रांति और मोबाइल-इंटरनेट युग में बहुत तेजी से बदलाव देखने को मिलने लगे। खास तौर पर मोबाइल फोनो के आंकड़े बहुत तेजी से बढ़ रहे थे। लेकिन, 1995 से पहले आंकड़े इतने तेजी से नहीं बढ़ते थे और किसी के घर फोन लगना एक बड़ी घटना होती थी। अरसे तक संचार का सारा दारोमदार केवल डाक सेवाओं और स्थिर फोनों के साथ टेलीग्राम पर टिका हुआ था। तब टेलीफोन स्टेटस सिंबल बना हुआ था और फोन लगना बहुत टेढी खीर था। बहुत से लोग 10-10 साल से टेलीफोन विभाग का चक्कर लगाते-लगाते थक गए थे पर उनकी प्रतिक्षा सूची खत्म नहीं होती थी।
लेकिन, पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह (22 अक्तूबर 1986 से 14 फरवरी 1988) ने अपने छोटे कार्यकाल में देश में न केवल संचार क्रांति की मजबूत आधारशिला रखी, बल्कि बहुत से साहसिक फैसले लिए। जिसके बाद 1986-87 में 3.47 लाख टेलीफोन लगने के साथ भारत में कुल टेलीफोनों की संख्या बढ़ कर 39.89 लाख हो गई। 1986-87 में मीटर के आधार पर हुई एसटीडी और स्थानीय कालों की संख्या 1648 करोड हो गयी,जबकि 1985-86 में यह 1382 करोड़ थी। साल 1987-88 में मीटर की गई कालों की संख्या 1933.4 करोड़ पार कर गयी। 1986-87 में 819 नए ग्रामीण टेलीफोन एक्सचेंज लगाए गए ,जबकि गांवो में संचार सुविधाओं के विकास के तहत 1558 पीसीओ लगे। अर्जुन सिंह ने तार सेवाओं (टेलीग्राम) के विकास पर भी विशेष ध्यान दिया। तार वितरण सेवा में व्यापक सुधार का फैसला करते हुए अर्जुन सिंह ने यह सुनिश्चित करने का भी आदेश दिया कि 500 प्रमुख शहरों और कस्बों में 99 फीसदी तार 12 घंटों में बांट दिए जायें। कार्यरूप में यह फैसला साकार भी हुआ और सर्वेक्षणों में प्रगति का शानदार रिजल्ट निकला।
संचार औऱ तकनीक युग में विज्ञान के चमत्कार हमारे लिए भले ही वरदान साबित हो रहे हो, लेकिन वह टेलीग्राम के लिए तो अभिशाप ही बने। ऐसे में कृषि प्रधान देश के उन गांवों को कैसे मुख्यधारा से जोड़ सकेंगे जहां लोग आज भी बिजली और फोन कनेक्शन नहीं पहुंचा है। सरकार भले ही संचार क्रांति की दुहाई देकर टेलीग्राम जैसी संचार व्यवस्था बंद कर दे, पर हकीकत तो ये है कि हमने वक्त के साथ दौड़ना ही नहीं सीखा। वो दिन दूर नहीं जब स्कूलों में ब्लैक बोर्ड की जगह स्क्रीन, फैक्स की जगह ई-मेल, पैपर की जगह वर्ड डॉक्युमेंट जगह ले लगी। ऐसे में शहर तो बड़ी आसानी से इसे गले लगा लेंगे, लेकिन गांव मुख्यधारा से जुड़ने के बजाय औऱ पीछे चला जाएगा। इसलिए, अगर समय रहते गांवों में इस्तेमाल होनेवाली संचार माध्यमों ने वक्त के साथ खुद को नहीं बदला तो उन्हें भी आखिरी सलामी लेनी पड़ सकती है।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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