121 करोड़ की आबादी वाला देश जहां आधी से ज्यादा आबादी गांवों में रहती हैं, जिसे हम असली भारत के नाम से भी जानते हैं। करीब 83 करोड़ यानी कुल आबादी का 69 प्रतिशत इसी असली भारत में रहती है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि भले ही देश के शहरों में आबादी तेजी से बढ़ रही हो, लेकिन भारत अब भी गांवों में ही बसता है। और ऐसे में जब तक हम इन गांवों को विकास की मुख्यधारा से नहीं जोड़ते, हमारा देश तरक्की नहीं कर सकता। इसलिए हर पंचायत में एक डिजिटल क्रांति की सख्त जरूरत है, ताकि हर ग्रामीण दूसरी दुनिया से सीधा संपर्क कर सके। वरना, ई-प्रशासन का हमारा सपना अधूरा ही रह जाएगा।
देश में इस वक्त 2 लाख 45 हजार 5 सौ 25 पंचायत कार्यालय हैं। इनमें 525 जिला पंचायतों के, 6 हजार 2 सौ 99 ब्लॉक पंचायतों के और 2 लाख 38 हजार 644 ग्राम पंचायतों के कार्यालय हैं। पंचायती राज्य मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक से इनमें से सिर्फ 58 हजार 291 के पास ही कंप्यूटर हैं। झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश में करीब सभी पंचायतों में एक-दो को छोड़ किसी के पास एक भी कंप्यूटर नहीं है। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि जिनके पास एक कंप्यूटर है भी तो उनमें कितने कंप्यूटर काम करते हैं। गांवों में लोगों से बात करने पर पता चलता है कि इनमें से ज्यादातर या तो काम करते ही नहीं या वहां कोई ऐसा है ही नहीं, जो इन्हें चला सके। दरअसल, सच पूछें तो, इससे पहले गांवों को इंटरनेट क्रांति से जोड़ने के लिए सार्थक कोशिशें हुई ही नहीं। हां, गाहे-बगाहे मोबाइल फोन क्रांति जरूर दस्तक देती रही है।
इसी चुनौती से निपटने के लिए डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने डिजिटल पंचायत नाम की महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की है, जो देश में डिजिटल डिवाइड को पाटने की एक बड़ी कोशिश है। हालांकि शुरुआती सालों में नेशनल इंटरनेट एक्सचेंज ऑफ इंडिया ने भी डिजिटल पंचायत परियोजना को आगे बढ़ाने में काफी मदद की थी। लेकिन, पिछले कई साल से इस डिजिटल पंचायत परियोजना के तहल हम अकेले लगातार कोशिश कर रहे हैं कि हर पंचायत की एक अपनी वेबसाइट बने। पंचायत से जुड़े लोगों का प्रफाइल, ई-मेल एड्रेस के साथ पंचायत में जारी विकास कार्यों का पूरा विवरण हो। और इसके अलावा हर 20-25 पंचायतों के बीच एक डिजिटल पंचायत केंद्र बने, जहां जाकर पंचायत के लोग डिजिटल संसाधनों का इस्तेमाल कर , अपने समाज, व्यासाय, सरकारी स्कीम की पूरी जानकारी हासिल कर सकें।
लेकिन, ये अपने-आप में एक बड़ी चुनौती है कि कैसे गांववालों को यह भरोसा दिलाया जाए कि डिजिटल पंचायत के इस्तेमाल से उनकी जिंदगी में एक बड़ा बदलाव आ सकता है। एक ऐसे जगह जहां ज्यादातर लोग अपना समय या तो खेतों में गुजारते हों या फिर स्थानीय व्यवसाय और मजदूरी में, ये डिजिटल पंचायतें उसी सूरत में चल सकती हैं, जब उनका कामकाज ऐसे गैर सरकारी संगठनों यानी एनजीओ के हाथ में हो यानी जिनके पास इस काम का अनुभव हो और जिनका इन पंचायतों पर कुछ असर हो।
ऐसे एनजीओ को ढूंढ़ना, और उन्हें अपने लोगों और संसाधनों को इस काम में लगाने के लिए तैयार करना भी आसान काम नहीं है। लेकिन, इसका कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि पंचायत से जुड़े ज्यादातर लोगों का शिक्षा स्तर काफी कम है।
इसी मद्देनजर मैंने तकरीबन एक हजार पंचायत प्रतिनिधियों से बात की, जिनमें ज्यादातर ने मोबाइल के अलावा किसी डिजिटल उपकरण का कभी इस्तेमाल नहीं किया। हालांकि वे कंप्यूटर और इंटरनेट को लेकर काफी उत्साहित दिखते है और सीखना चाहते हैं। लेकिन, प्रशिक्षण के मौके पर वो उपस्थिति दर्ज नहीं कराते। वे सब वेबसाइट पर अपना और अपने गांव का फोटो और जानकारी चाहते तो हैं, लेकिन वे इसके लिए जरूरी जानकारी और फोटो उपलब्ध कराने में कोई दिलचस्पी नही दिखाते।
इन्हीं सब बाधाओं के बावजूद पंचायत हमारे प्रशासन की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। शिक्षा से लेकर कृषि और गरीबी उन्मूलन तक विकास की 29 ऐसी योजनाएं हैं, जिन्हें लागू करने के लिए हम पूरी तरह से पंचायतों पर निर्भर हैं। ऐसे में एक ऐसा नायाब तरीका निकालना जरूरी है, जिससे ये योजनाएं ठीक से और पूरी ईमानदारी से लागू हो सकें और समय पर उनके नतीजे मिल सकें।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य हैं।
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