भारत में नारी का स्थान हमारे शास्त्रो में तो बहुत अच्छा है, लेकिन, जहां तक मेरा अनुभव है, असल जिंदगी में ये बिलकुल अलग है। मैंने अपने आसपास ऐसी कई महिलाओं को देखा है, जिन्हें अपने अधिकार तक नहीं पता है, उनकी पूरी जिंदगी एक चार दिवारी में कैद हो कर रह गई है। उन्हें अपने घर के अलावा कुछ नहीं पता। हरियाणा में रेवाड़ी जिले के एक छोटे से गांव बासडुडा की 60 वर्षीय बिमला देवी भी इस बात की तस्दीक करती हैं, जिनसे मेरी मुलाकात रेड रिक्शा रेवलूशन यात्रा के दौरान उन्हीं के गांव में हुई।
दरअसल, बिमला की पहचान एक ऐसी जुझारू महिला के रूप में है, जिन्होंने पुरुष प्रधान समाज महिलाओं के हक के लिए आवाज उठाने की जुर्रत की। ऐसा समाज जहां औरतों को हमेशा से दोयम दर्जे का माना जाता रहा हो औऱ भेदभाव-छूआछूत चरम पर हो, वहां किसी महिला का मुखर होना नामुमकिन था। लेकिन, एक दलित महिला होने का बावजूद बिमला देवी ने अकेले इस मिथक को तोड़ने की कोशिश की। जिसका खामियाजा उसे प्रताड़ना और सरेआम बेइज्जती से चुकानी पड़ी। इस मुश्किल घड़ी में एक रिश्तेदार (देवर) के सिवाय उसके समर्थन में कोई भी नहीं आया।
लेकिन, इस दर्द को लिए बिमला ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहां किसी तरह का भेदभाव न हो और सभी जाति के लोग एक साथ रह सकें। प्रताड़ना और बेइज्जती के बावजूद बिमला लगातार संघर्ष करती रहीं और पंचायत के सामने महिलाओं के हक के लिए आवाज उठाती रहीं। लगातार कोशिशों की बदौलत दूसरी महिलाओं के आत्मविश्वास में थोड़ी बढ़ोतरी हुई और वो बिमला के समर्थन में आने लगीं।
फिर, एक दिन बिमला ने गांव की करीब 20-25 महिलाओं को इकट्ठा किया और उन्हें स्वास्थ्य के कई मुद्दों पर शिक्षित करना शुरू कर दिया। इस दौरान उन्हें महिलाओं के खिलाफ प्रताड़ना, दहेज के लिए दबाव जैसी कई शिकायतें भी आईं, जिसे वो खुद उनकी मदद के लिए कई बार कोर्ट और पुलिस स्टेशन तक भी गईं।
मुलाकात के दौरान अपने शुरुआती दिन को याद करते हुए बिमला ने बताया कि कैसे उन्होंने महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ी। इसी सिलसिले में बिमला ने कहा , “कुछ दिनों पहले तक महिलाओं की दुनिया सिर्फ रसोई तक थी, उन्हें घर से बाहर निकलने पर पाबंदी होती थी। जिसकी वजह से न उनकी पढ़ाई हो पाती थी और न ही उनमें आत्मविश्वास पैदा हो पाता था। लेकिन हमारी कोशिश की बदौलत आज महिलाएं न सिर्फ जागरुक हुईं हैं बल्कि अब वो खुद आगे बढ़कर अपनी समस्याओं को सुलझाती हैं और दूसरी महिलाओं को भी प्रेरित करती हैं।”
हालांकि, पहले भी बिमला देवी के बारे में काफी कुछ अखबारों में लिखा जा चुका है। लेकिन, मुलाकात के दौरान मैंने जो महसूस किया वो कहानियां या अखबारों को पढ़कर हासिल नहीं किया जा सकता। आज के भारतीय समाज में बिमला देवी जैसी महिलाओं की सख्त जरूरत है। उनकी हिम्मत, लगन और सेवा भावना की वजह से ही समाज में बदलाव की हल्की झलक दिखाई देने लगी है। जिम्मेदारी संभालने के साथ साथ हर मुश्किल का सामना करने की हिम्मत रखती है, बिमला जैसी महिलाएं।
दूसरी महिलाओं के लिए प्रेरणा बन चुकी बिमला देवी जैसी, कई और भी महिलाएं देश के अलग-अलग हिस्सों के काम कर रही हैं, जिन्हें वोडाफोन और डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन की टीम ने रेड रिक्शा रेवलूशन यात्रा के दौरान सम्मानित कर हौसला बढ़ाया।
महिलाओं की स्थिति पर एक बार स्वामी विवेकानंद ने भी वर्षों पहले कहा था- ‘किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है वहां की महिलाओं की स्थिति। हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए, जहां वे अपनी समस्याओं को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें।’
इससे साबित होता है कि आज के सामजाकि परिवेश में बिमला देवी जैसी कई महिलाओं की जरूरत है, ताकि महिलाओं के सशक्तिकरण के साथ-साथ उन्हें बराबरी का हक मिल सके।
आगे बातचीत के दौरान बिमला ने ये भी बताया कि उनकी मेहनत ने कैसे सदियों पुरानी जाति भेदभाव को गांव से खत्म किया। जिसका नतीजा है कि आज गांव के सभी जाति के लोग एक साथ मिलते हैं, महिलाओं को बराबरी का हक देते हैं और एक–दूसरे की शादियों में भी शरीक होते हैं। और यहां तक कि उंची-नीची जातियों के लोग आपस में रिश्ता भी करने लगे हैं।
मालूम हो कि पिछले साल 2012 में थॉम्सन रॉयटर्स फ़ाउंडेशन द्वारा दुनिया के कुछ संपन्न देशों में महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वे किया गया था, जिसमें भारत सबसे निचले पायदान पर था। सर्वे में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार और हिंसा जैसे कई विषयों पर महिलाओं की स्थिति की तुलना की गई थी। सर्वे 19 विकसित और उभरते हुए देशों में किया गया था जिनमें भारत, मेक्सिको, इंडोनेशिया, ब्राज़ील सउदी अरब जैसे देश शामिल थे।
भारत के 19 देशों की सूची में सबसे अंतिम पायदान पर रहने के लिए कम उम्र में विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा और कण्या भ्रूण हत्या जैसे कारणों को गिनाया गया था। हालांकि, सर्वे में बताया गया था कि भारत में आठ वर्ष पहले बना घरेलू हिंसा क़ानून जरूर एक प्रगतिशील कदम था, लेकिन, लिंग के आधार पर भारत में हिंसा अभी भी जारी है।
ऐसे में जरूरत है कि कैसे घर की घुटन भरी चहारदीवारी में कैद महिलाओं को बाहर निकाल कर, उन्हें भी साधारण-सी गृहिणी से कुशल प्रबंधक बनने के मौके दिए जाएं। आज सूचना युग में, सूचना प्रौद्योगिकी आर्थिक विकास और आम लोगों के सशक्तिकरण के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के तौर पर उभरा है, जहां खासकर महिलाओं के लिए कई आशाजनक कैरियर के मौके मौजूद हैं। इस मौके का फायदा उठाकर, महिलाओं को और भी सशक्त बनाने की जरूरत है, ताकि वो खुद अपने पैरों पर खड़ा होकर समाज के विकास में बराबर की भागीदार बन सकें।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवर्ड के चेयरमैन हैं वह इंटरनेट प्रसारण एवं
संचालन के लिए संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्यहैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए
बनी सूचनाएवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेट के सदस्य हैं।
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