एक तरफ देश में जैसे जैसे चुनावी सरगर्मी तेज हो रही है उसी तरह केंद्र और राज्य सरकारें भी अपनी-अपनी उपलब्धियों के साथ-साथ मैदान में उतरने लगी हैं। इस दौड़ में दिल्ली सरकार भी पीछे नहीं है। राजधानी दिल्ली में चल रहे एफएम रोडियो पर विज्ञापन हो या मेट्रो और बस स्टॉप पर लगे होर्डिंग्स, सब के सब दिल्ली सरकार की गुनगान करते नजर आ रहे हैं। इन्हीं विज्ञापनों में से एक है शिक्षा के क्षेत्र में दिल्ली सरकार की उपलब्धियों दर्शाता एक होर्डिंग, जिसमें ये कहा गया है कि दिल्ली के 44 लाख बच्चों ने स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। पहली नजर में तो ये किसी को भी शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक उपलब्धि लगेगा, लेकिन कभी किसी ने सोचा है कि ये बच्चे कितने काबिल हैं। शायद नहीं।
दिल्ली के ये 44 लाख बच्चे स्कूल तो गए लेकिन शिक्षा की गुणवता में वो कहीं भी नहीं ठहरते। बिहार और उत्तरप्रदेश का भी यही हाल है। राज्य सरकारों ने मिड-डे मील औऱ साइकिल देने के बहाने स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ा तो ली, लेकिन शिक्षा के नाम पर उन्हें कुछ नहीं मिला। यहीं नहीं, इन राज्यों के सभी सरकारी स्कूलों में ये सर्कूलर तक जारी किया जा चुका है कि किसी बच्चे को फेल न किया जाए। ऐसे में हम आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि शिक्षा का क्या स्तर होगा, जहां परीक्षा में किसी बच्चे को फेल करने की अनुमति न हो। इसी की नतीजा है कि हमारे देश में ऊंची साक्षरता दर होने के बावजूद बेरोजगारी चरम पर है।
हालांकि ये हालात सिर्फ सरकारी स्कूलों तक ही सीमित नहीं हैं। देश में कुकुरमुत्ते की तरह फैले कोचिंग संस्थान भी इसकी बानगी हैं। राजस्थान में कोटा इसका जीता जागता मिसाल है जहां शिक्षा का व्यापार जोरों पर है। कोटा में हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग और मेडिकल कोचिंग संस्थान भरे पड़े हैं। यहां हर साल हजारों बच्चे इस उम्मीद से जाते हैं कि वहां कोचिंग करने के बाद शायद वो इंजीनियरिंग, मेडिकल प्रवेश परीक्षा में सफल हो पाएंगे। लेकिन, वहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगती है।
महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव फलटन की कविता इस हकीकत को बेनकाब करती है। मराठी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई पूरी करने के बाद उसने 2 साल पहले इस उम्मीद के साथ कोटा गई थी कि वहां से कोचिंग के बाद लौटकर शायद मेडिकल प्रवेश परीक्षा में सफल हो पाएगी। लेकिन, कोचिंग के लिए अपना कीमती समय के साथ-साथ लाखों रुपए बर्बाद करने के बावजूद उसे निराशा ही हाथ लगी। यहां तक कि उसे डेंटल कॉलेज में भी जगह पाने में नाकाम रही।
हालांकि, ये सिर्फ महाराष्ट्र की कविता की कहानी नहीं है, बल्कि हमारे देश में ऐसी कई कविता और सविता और भी हैं जिन्होंने लाखों रुपए कोचिंग पर खर्च किए फिर भी सफलता नहीं मिली। जिसमें उनका कोई कसूर नहीं। कसूर तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था का है जिसमें शुरू से ही स्कूलों में शिक्षा की गुणवनता पर ध्यान देने बजाय छात्रों की संख्या बढ़ाने पर जोर दिया।
लेकिन, अब शायद लोगों को भी इसका एहसास हो चुका है, जिसका असर भी दिखने लगा है। और यही नतीजा है कि लोग अपने बच्चों को अब सरकारी स्कूलों में भेजने के बजाए कुछ चुनिंदा प्राइवेट स्कूलों में ही भेजना पसंद करते हैं। इसके अलावा समाज के संपन्न लोग भी इसकी जरूरत महसूस करते हुए बढ़ चढ़कर हिस्सा भी लेने लगे हैं, ताकि उनके समाज में ऐसी शिक्षा व्यवस्था कायम हो जहां अच्छी शिक्षा के साथ-साथ उनमें मानवीय विकास भी हो।
इसका सबसे बड़ा उदाहरण है यूपी के सहारनपुर के मिर्जापुर में एक छोटे से गांव बादशाहीबाग के पास निर्माणाधीन ग्लोकल यूनिवर्सिटी। इस यूनिवर्सिटी का निर्माण ऐसे इलाके में हो रहा है जहां साक्षरता दर सिर्फ 10-15 फीसदी है और वहां के ज्यादातर लोग लकड़ी के फर्निचर बनाने का काम करते हैं।
बेरोजगारी और अशिक्षा के ऐसे माहौल में ग्लोकल यूनिवर्सिटी जैसे संस्थान की अहमियत और भी बढ़ जाती है जहां उच्च शिक्षा के साथ-साथ मानवता और नैतिकता की भी सीख दी जाए। ताकि उस शिक्षण संस्थान से निकला हर छात्र दुनिया के सामने शिक्षा और व्यवहार से एक मिसाल पेश करे।
कृषि प्रधान देश भारत जहां 65 से 70 फीसदी आबादी आज भी गांवों में रहती है, उन्हें भी शहर की तरह विश्वस्तरीय शिक्षा का हक है। लेकिन, देश के गांवों में ऐसी शिक्षण संस्थानों का न होना और शहरों में पढ़ाई का भारी खर्च, ग्रामीणों को उन्हें अपने हक पाने से रोकता है। जिसके चलते हर साल शहर के लोग तरक्की करते चले जाते हैं और गांव के लोग उसी रफ्तार से विकास की मुख्यधारा से कटते चले जाते हैं।
चार राज्यों की सीमा से घिरा ग्लोकल यूनिवर्सिटी करीब 300 एकड़ में फैला है, जिसकी बुनियाद भी इसी मकसद के साथ रखी गई है कि देश की मुख्यधारा से कटे गांवों तक भी विश्वस्तरीय शिक्षा की पहुंच हो। आज के दौर में जब ज्यादातर शिक्षण संस्थानों में व्यवसायिक शिक्षा पर जोर दी जाती है जहां गंभीरता और नैतिकता की कमी होती , ऐसे में ग्लोकल यूनिवर्सिटी शिक्षा जगत को एक नई दिशा दिखा सकता है।
67वीं स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ग्लोकल यूनिवर्सिटी के संस्थापक हाजी इकबाल ने भी ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर जोर देते हुए कहा कि देश के सर्वांगीन विकास के लिए छात्रों को शिक्षा के साथ-साथ साकारात्मक व्यक्तित्व का विकास भी जरूरी है।
यही नहीं, उनका ये भी मानना है कि ग्लोकल यूनिवर्सिटी भारत में ही एमआईटी, हारवर्ड औऱ ऑक्सफोर्ड के स्तर का होगा ताकि दूसरे देश में पढ़ाई के लिए जाने वाले छात्र अपने ही देश में वैसी शिक्षा हासिल कर सकें। इसके अलावा इस यूनिवर्सिटी में ऐसे मेघावी छात्रों को भी मदद की जाएगी जो आर्थिक रूप से कमजोर और फीस चुकाने में असमर्थ होंगे।
हालांकि, इस यूनिवर्सिटी को पूरी तरह से शुरू होने में करीब एक साल का और समय लगेगा। लेकिन, प्रशासनिक कार्यों के लिए 15 अगस्त 2013 को इसका उदघाटन किया जा चुका है और कुछ विभागों में पढ़ाई भी सितंबर महीने में शुरू हो जाएगी। यूनिवर्सिटी के बारे में पूरी जानकारी www.theglobaliniversity.in पर भी देखे जा सकते हैं।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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