आज भारत में जहां एक तरफ एंटरटेंनमेंट मीडिया हर साल तरक्की की नई नई ऊंचाईंयां छू रहा है, तो वहीं दूसरी तरफ एक बड़ी आबादी कॉम्यूनिटी रेडियो यानी सामुदायिक रेडियो के नाम से भी परिचित नहीं है। हालांकि इसकी वजहें कई हो सकती हैं। एक तो कॉम्यूनिटी रेडियो का दायरा बेहद छोटा होना और दूसरे इसे चलाने और इससे फायदा पाने वालों का बेहद आम और स्थानीय होना। लेकिन, इसके बावजूद हमें ये नहीं भूलाना चाहिए कि इस रेडियो की ताकत हमारी और आपकी सोच से भी परे है। क्योंकि इसका संचालक, कार्यकर्ता और उपभोक्ता वो तबका है जो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है।
दरअसल भारत में सामुदायिक रेडियो की लहर 90 के दशक में ही पैदा हो गई थी, जब 1995 में ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि ‘रेडियो तरंगें जनता की संपत्ति हैं।’ हालांकि, यह एक अच्छी खबर जरूर थी, लेकिन शुरूआती दौर में सिर्फ शैक्षिक स्तर पर ही ऐसे स्टेशनों को खोलने की इजाजत मिली थी।
जिसके तहत चेन्नई स्थित अन्ना विश्वविद्यालय का अन्ना एफएम पहला कैंपस सामुदायिक रेडियो बना, जिसके तमाम कार्यक्रम आज भी विश्वविद्यालय के छात्र ही तैयार करते हैं। लेकिन, नवंबर 2006 में जब भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत गैर-सरकारी संस्थानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी सामुदायिक रेडियो शुरू करने की इजाजत दे दी थी, उसके बाद से धीरे धीरे बदलाव नजर आने लगा।
जिसके फलस्वरूप, आज इस समय भारत में करीब 140 सामुदायिक रेडियो खुल चुके हैं। नई नीति के तहत कोई व्यक्ति विशेष या फिर आपराधिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि की संस्थाओं के अलावा कोई भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन दे सकती है। लेकिन चूंकि ऐसे रेडियो स्टेशनों के लिए केंद्र के स्तर से फंड नहीं मिल पाता और इनके लिए फंड जुटाने को लेकर कई कड़े नियम भी हैं।
ऐसे में सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन देना भले ही आसान हो, लेकिन लाइसेंस हासिल कर लेना और फिर उसे लंबे समय तक चला पाना किसी इंतेहान से कम नहीं है। जिसका नतीजा है कि पिछले एक साल में 239 गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा आवेदन और फीस जमा करने के बावजूद उनमें से एक को भी लाइसेंस नसीब नहीं हुआ।
लेकिन, अगर देर-सवेर लाइसेंस मिल भी जाता, तो भी उनकी दिक्कतें कम नहीं होतीं। क्योंकि, 12 किलोमीटर के दायरे की सीमा तक में बंधे सामुदायिक रेडियो के साथ यह शर्त भी जुड़ी होती है कि उसके करीब 50 प्रतिशत कार्यक्रमों में स्थानीयता हो और जहां तक संभव हो, वे स्थानीय भाषा में हों। एक घंटे में 5 मिनट के विज्ञापनों की छूट तो है लेकिन स्पांसर्ड प्रोग्रामों की अनुमति नहीं है।
हालांकि, इसकी असल अहमियत का पता काफी पहले से है। सुनामी के वक्त इसका भरपूर इस्तेमाल हुआ, जब प्रसारण के तमाम हथियार ढीले पड़ गए थे। इसी सामुदायिक रेडियो की वजह से ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह में करीब 14 हजार लापता लोगों को आपस में जोड़ा जा सका था। यहीं नहीं हाल ही में केदारनाथ की तबाही के दौरान भी सामुदायिक रेडियो का कमाल देखने को मिला था, जब रेडियो हेनलवाणी, कुमाउ वाणी और मंदाकिनी की आवाज जैसे सामुदायिक रेडियो को सुनकर सेना के जवान संकट में फंसे लोगों का पता लगाते थे।
आपातकाल और त्रासदी के दौरान ही नहीं, सामान्य हालात में भी लोगों को अहम जानकारियां मुहैया कराने में भी सामुदायिक रेडियो अब तक काफी कारगर साबित हुआ है। इसके कुछ उदाहरण हैं – आंध्र में हैदराबाद से 100 किलोमीटर दूर पस्तापुर गाँव का कम्यूनिटी रेडियो और छत्तीसगढ़ का ‘सीजीनेट स्वरा’ । एक तरफ पस्तापुर गाँव का कम्यूनिटी रेडियो ग़रीब महिलाओं के लिए खेतीबाड़ी की सूचना देने के साथ-साथ उनकी एक आवाज़ बन कर उभरा है, तो वहीं दूसरी तरफ 2000 सिटिजन जर्नलिस्ट की मदद से चलने वाला ‘सीजी नेट स्वरा’ कम्यूनिटी रेडियो की पहुंच आज छत्तीसगढ़ के 50 हजार लोगों से ज्यादा हो चुकी है। इनकी तरह देश में कई और भी कॉम्यूनिटी रेडियो हैं जो अपने समुदाय की आवाज बन चुके हैं और इसकी असीम शक्ति से आम लोगों को वाकिफ करा रहे हैं।
ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि अब सामुदायिक रेडियो यानी कम्यूनिटी रेडियो धीरे-धीरे एक नए जमाने का मीडिया का रूप लेता जा रहा है। अब जरूरत है तो बस इसे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच बनाने की और सरकार को लाइसेंस प्रक्रिया को आसान करने की। लाइसेंस प्रक्रिया आसान होने से दूर दराज के गांवों में स्थित गैर सरकारी संस्था भी आवेदन कर सकेंगे और समाज में जागरुकता फैलाने में एक सशक्त और कारगर माध्यम के तौर पर इस्तेमाल हो सकेगा।
इसी के मद्देनजर डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन और केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने दिसंबर में देश भर के कॉम्यूनिटी रेडियो संचालकों के लिए एक वर्कशॉप आयोजित करने का फैसला किया है, ताकि उन्हें इसकी अहमियत की जानकारी के साथ-साथ एक नया मार्ग दर्शन मिल सके और उनके अनुभवों को एक दूसरे के बीच साझा किया जा सके। इसके अलावा इस वर्कशॉप में कॉम्यूनिटी रेडियो प्रतिनिधियों को सोशल मीडिया यानी फेसबुक, यू-ट्यूब औऱ वेबसाइट जैसे डिजिटल माध्यमों के इस्तेमाल की खास ट्रेनिंग भी दी जाएगी, ताकि वो इससे फायदा उठाकर कॉम्यूनिटी रेडियों की पहुंच ज्यादा से ज्यादा लोगों तक बना सकें।
हालांकि, इससे पहले डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने 5 और 6 दिसंबर को दिल्ली में आयोजित होने वाले 10वें मंथन अवॉर्ड्स समारोह में भी देश भर से कॉम्यूनिटी रेडियो प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया है, जिसकी जानकारी http://manthanaward.org/ पर भी उपलब्ध है।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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