आखिर किसी ने सोचा है कि आखिर क्यों अब मदरसों से इंजीनियर नहीं निकल पा रहे हैं? आखिर क्यों मुस्लिम बच्चे हाईस्कूल या इंटरमीडिएट के बाद आगे की पढ़ाई अधूरी ही छोड़ रहे हैं? हाफिज, मुफ्ती, मौलाना बनने के लिए मदरसों में 18 घंटे पढ़ने वाला छात्र, क्यों नहीं सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी के लिए इतनी मेहनत करता है? शायद इन सवालों के जवाब की उम्मीद किसी को नहीं है।
लेकिन, नई सरकार ने इन सवालों के जवाब के साथ-साथ आशंकाओं को भी दूर करने की कोशिश में जुट गई है। यानी भारत सरकार ने मुस्लिम समुदाय की उन आशंकाओं को खत्म करने के लिए कदम उठाने शुरू कर दिए हैं, जो देश का एक बड़ा तबका दशकों से दो-चार था। यहीं नहीं, सरकार की ओर से इशारा मिलते ही ह्यूमन रिसोर्स एंड डिवेलपमेंट (एचआरडी) मिनिस्ट्री और माइनॉरिटी अफेयर्स मिनिस्ट्री मिलकर नेशनल मदरसा मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम शुरू करने की प्लानिंग भी करने लगे हैं। इसके तहत दोनों मंत्रालय मुस्लिम समुदाय के रिलीजियस लीडर्स से कंसल्टेशन भी शुरू करने वाले हैं, ताकि मदरसों में एजुकेशन सिस्टम को मजबूत और आधुनिक बनाने की प्रकिया तय की जा सके।
सूत्रों की मानें तो एचआरडी मिनिस्ट्री मदरसों की पढ़ाई में साइंस, कंप्यूटर साइंस और मैथ्स जैसे विषयों को शामिल करना चाहती है, ताकि मदरसों में पढ़ने वालों छात्रों को किसी भी परीक्षा में शामिल होने में परेशानी न हो और वो आसानी से मुख्य धारा से जुड़ सकें।
गौरतलब है कि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे आज भी उसी पुरानी पद्धति के तहत शिक्षा हासिल कर रहे हैं, जो सरकारी, अर्द्ध सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियां हासिल करने में उनकी कोई मदद नहीं कर पाते है। सच्चर समिति की रिपोर्ट में भी इसका जिक्र है कि, मुसलमानों के 4 प्रतिशत बच्चे देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद 7.5 लाख मदरसों में पढ़ते हैं। हालंकि, पिछली सरकार ने भी इन मदरसों को आधुनिक और तकनीकी शिक्षा से जोड़ने के लिए एक बोर्ड का गठन करने की एक नाकाम कोशिश की थी। ताकि इन मदरसों की डिग्रियों को सरकारी मान्यता मिले, ताकि शिक्षा पूरी करने के बाद इन मदरसों के बच्चों को सरकारी, अर्द्ध सरकारी या निजी क्षेत्र की नौकरियां पाने के लिए दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें। लेकिन, उलेमाओं और समाज के बुद्धिजीवियों के विरोध के बाद मदरसा बोर्ड गठन की प्रक्रिया ठंडे बस्ते में डाल दी गई। इन्हीं वजहों से आजकल अकसर हमें कहीं न कहीं विज्ञान और तकनीक से इस्लाम का टकराव भी देखने को मिल जाता है। दूर-दराज गांवों में कई बार मुस्लिम समुदाय विज्ञान और तकनीक को गैर-इस्लामी तक करार देते हैं।
हमें मालूम होना चाहिए कि किसी भी काम को करने का अगर साधन बदल जाए तो वह काम या साधन गैर इस्लामी कतई नहीं होता। इस्लाम ज़माने के आगे बढ़ने के साथ तकनीक और साधनों के बदलाव को स्वीकार करता रहा है। क्योंकि विज्ञान और तकनीक से गुरेज करके तरक्की मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। अफसोस कि ज्यादातर मदरसों में भी ये चीज़ें नहीं सिखाईं पढ़ाईं जा रहीं। आज ज्यादातर मदरसों या अकलियत शिक्षण संस्थानों का अप्रोच ठीक नहीं है। उनका आधुनिकता जैसी चीज से कोई लेना-देना नहीं है, जिसका नतीजा है कि आज मदरसे या अकलियत शिक्षण संस्थानों से निकले बच्चे अमूमन जिंदगी की दौड़ में पीछे रह जाते हैं। इसे पटरी पर लाने के लिए इन शिक्षण संस्थानों को अपनी अप्रोच पूरी तरह बदलनी होगी। इन मदरसों और अकलियत शिक्षण संस्थानों में एसी शिक्षा की सुविधा होनी चाहिए जहां बच्चे दीनी तालीम के साथ-साथ दुनिया की नई तालीम में हासिल कर सकें। वहां कंप्यूटर, इंटरनेट के साथ-साथ ऐसी तकनीकी शिक्षा मिल सके, जिससे वो देश के किसी कोने में वो एक कामयाब इंसान की तरह जिंदगी बसर कर सकें।
उम्मीद है कि नई सरकार की इन कोशिशों से अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी सभी को फायदा मिलेगा। लेकिन, पिछली गलतियों को न दोहराते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को बेहद संजीदगी से इस योजनाओं को जरुरतमंदों तक पहुंचाना होगा, जो अब तक नहीं हो पाया। इसके लिए एक खास रणनीति के साथ-साथ ऐसे गैर सरकारी संस्थाओं और समाज सेवियों को जिम्मेदारी देनी होगी, जो ऐसे कामों को बखूबी अंजाम दे रहे हैं।
अच्छी बात यह है कि आज का मुसलमान युवा पिछली पीढ़ियों से ज़्यादा समझदार है। उन्हें समझ में आने लगा है कि अगर वो पुराने ख्याल को छोड़, नई तकनीक को नहीं अपनाएंगे, तब तक कुछ हासिल नहीं होने वाला है। यही वजह है कि आज के मुस्लिम युवा मुख्यधारा में शामिल होने के लिए मेहनत कर रहे हैं और कुछ हद तक क़ामयाब भी हो रहे हैं।बस जरूरत है उन्हें एक नई दिशा देने क, ताकि वो अपनी योग्यता के मुताबिक सफलता की नई ऊंचाई को छू सकें।
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