पहचान और विकास की चाह की वजह से पहाड़ों में जिस जनांदोलन की शुरुआत हुई थी, वो 12 साल में ही निरर्थक हो गया। आज विडंबना यह है कि अलगाव की वो काली छाया उत्तराखंड के पहाड़ों को आहिस्ता-आहिस्ता अपनी चपेट में ले रही है।
जहां एक तरफ हमारा देश लगातार उन्नति औऱ विकास की ओर अग्रसर हो रहा है, वहीं विकास के नाम पर अलग हुए राज्य उत्तराखंड की हालत बद से बदतर होती जा रही है। राज्य बनने के बाद शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में हालात 1970 से भी बदतर हो गए हैं। अंग्रेजों के जमाने में भी जिन अस्पतालों में डॉक्टर थे, वहां भी अब डॉक्टर नहीं हैं। 1970-80 में जिन स्कूल-कॉलेजों को यूपी के बेहतरीन शिक्षण संस्थानों में गिना जाता था, आज वहां या तो शिक्षक नहीं हैं या सिफारिशी लोग तैनात हैं। अब हालात ये है कि रोजी की तालाश में युवा पलायन करने को मजबूर है।
सर्वेक्षण के मुताबिक 1000 में से 350.71 प्रदेशवासी अच्छी शिक्षा और नौकरी की तलाश में दूसरे रायों में जा चुके हैं, जबकि 7.014 फीसदी लोग दूसरे देशों की ओर पलायन कर चुके हैं। पलायन के जो आंकड़े सामने आए हैं उनसे राज्य में अपनाए गए विकास के मॉडल पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं।
मालूम हो कि पिछले दिनों केंद्र सरकार के नेशनल सैंपल सव्रे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की रिपोर्ट ‘माइग्रेशन इन इंडिया’ में यह दिलचस्प तथ्य सामने आया था कि उत्तराखंड में गांवों से नहीं बल्कि शहरों से यादा पलायन हो रहा है। माइग्रेशन इन इंडिया रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में प्रति हजार लोगों पर शहरों से 486 लोग पलायन कर रहे हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह तादाद 344 व्यक्ति प्रति हजार है। इसमें बड़ा हिस्सा उन लोगों का है जो रोजगार की तलाश में अपना गांव-शहर छोड़ रहे हैं। शहरों से प्रति हजार पुरुषों में 397 तो प्रति हजार महिलाओं में 597 पलायन कर रही हैं, जबकि गांवों में तस्वीर यह है कि प्रति हजार पुरुषों में से 151 और प्रति हजार महिलाओं में 539 महिलाएं गांवों से पलायन कर रही हैं।
उधर, इसके विपरीत योजना आयोग के मुताबिक अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी बढ़ने के बजाए घटी है। अल्मोड़ा की आबादी घटने की रफ्तार -1.73 फीसद और पौड़ी की -1.51 फीसद है। बाकी पहाड़ी जिलों चमोली, रुदपयाग, टिहरी, पिथोरागढ़ और बागेश्वर की आबादी 5 फीसद से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है जबकि देश की आबादी बढ़ने की औसत रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के ही मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की अबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। यानि, कुल मिलाकर अबतक 35 फीसदी से ज्यादा आबादी राज्य छोड़ चुकी है। गांव उजड़ रहे हैं और पूरा पहाड़ इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन के मुहाने पर खड़ा है। पहाड़ों के प्रति यह उपेक्षा राज्य बनने के बाद ही शुरू हुई है। और ये उपेक्षा अर्थव्यवस्था में भी साफ झलक रही है।
अगर, कृषि और पशुपालन से किसी पहाड़ी ग्रामीण की आय का अंदाजा लगाएं, तो हम पाते हैं कि यह घटकर 6,374 रु. ही रह जाती है। यानी, हालात ये है कि पहाड़ के ग्रामीण व्यक्ति को हर माह 531 रु. में गुजारा करना पड़ रहा है। इसे विकास की विडंबना ही कहिए कि करीब 9 फीसदी की विकास दर से दौड़ रहे राज्य में पहाड़ के करीब 32 लाख 89 हजार ग्रामीण 17 रु. रोज में गुजारा करने को मजबूर हैं। स्वास्थ्य सुविधा की बात करें तो हम पाते हैं कि मैदान में इमरजेंसी में डॉक्टर तक पहुंचने का औसत समय 20 मिनट है, जबकि पहाड़ पर इमरजेंसी में डॉक्टर तक पहुंचने का समय 4 घंटा 48 मिनट है। तो दूसरी तरफ, सरकारी नौकरियों में यहां के लोगों का अनुपात भी राज्य बनने के बाद तेजी से गिरा है। इस स्थिति के लिए सरकार के साथ-साथ कहीं न कहीं स्थानीय सामाजिक संगठन भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।
एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड के 16 हजार गांवों में करीब 45 हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर पर्यावरण के पैरोकार हैं। उत्तराखंड को विकसित औऱ ऊर्जा राज्य बनाने का सपना भले ही दिखाया जा रहा हो, लेकिन हकीकत यह है कि अब तक यहां की ज्यादातर परियोजनाएं शुरू होने से पहले ही अड़ंगो का शिकार हो जाती हैं। जिसकी मुख्य वजह है स्थानीय भागीदारी और सूचना का न होना।
हालांकि, डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन (डीईएफ) टीम के एक सर्वे के मुताबिक कुछ ऐसे इलाकों की निशांदेही की गई है, जहां चिराग जैसी कुछ स्थानीय एनजीओ का योगदान काफी सराहनीय है, जिसके फलस्वरूप उन इलाकों में आज काफी बदलाव देखने को मिल रहे हैं। ये इलाके हैं नैनिताल का रीठा, काशियालेख, मौना, नौकियाचियाताल और सिमालखा गांव, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के क्षेत्र में लगातार सफल प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन, यहां भी तकनीकी ज्ञान की गैरमौजूदगी और सूचना का आभाव विकास के लिए बड़ी बाधा साबित हो रही है। सूचना के आभाव में युवा वर्ग 12वीं पास कर दर-दर भटकने को मजबूर हैं, तो वहीं स्थानीय महिलाएं, पुरुष फलों के मौसम को छोड़ पूरा साल बेकार घर बैठे रहते हैं।
इसी मद्देनजर, डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने इन इलाकों में सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र यानी (सीआईआरसी) स्थापित करने का फैसला किया है, ताकि देश से कटे उन पहाड़ी इलाके के लोगों को इंटरनेट के जरिए सूचना सपन्न बनाकर विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके। युवाओं को आगे की पढ़ाई के लिए मार्ग दर्शन, गांवों के लिए सरकारी योजना की जानकारी, महिलाओं के लिए लाभकारी योजनाओं की सूचना से लेकर पंचायत समिति की हर गतिविधि एवं योजना की जानकारी सीआईआरसी के माध्यम से उपलब्ध कराई जाएगी। यहीं नहीं, रोजगार की संभावनाओं को बढ़ाने और राज्य से पलायन रोकने के लिए सीआईआरसी वहां के पर्यावरण के अनुकूल गांवों को प्रोत्साहित भी करेगी ताकि क्षेत्र के लोगों की आमदनी बढ़ सके।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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