हमारे देश में कहीं एक और दूसरा देश बसता है, जिसमें चीनी संस्कृति की झलक, भारतीयता से लबरेज, बदला-बदला सा खानपान का अहसास कराता है। कुदरती खूबसूरती के बीच नदी में लिपटा दुनिया का सबसे लंबा द्वीप, पहाड़ियों पर सर्पीले रास्ते, दुनिया का सबसे नम स्थान, चाय के बाग इसमें और चार चांद लगा देते हैं। यही है “सेवन सिस्टर्स यानी नॉर्थ इस्ट की पहचान। लेकिन, यहां के हालात को देखकर हमें बरबस आचार्य विनोबा भावे की याद ताजा हो जाती है। एक बार उन्होंने नॉर्थ ईस्ट के लोगों के लिए कहा था-“अंग्रेजों ने जो आजादी दी, वह उनके पॉकेट में ही रही।”
आचार्य ने ये बात आजाद भारत की दशा को लेकर ही कही होगी। क्योंकि आजादी के साढे़ छः दशक बाद भी हालात वैसे ही हैं। कुदरत ने नॉर्थ ईस्ट को हर तरह की सौगात दी, लेकिन आजतक राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में इसका समुचित विकास नहीं हो पाया। वैसे तो नॉर्थ ईस्ट राज्यों का रास्ता असम से हो कर जाता है, लेकिन इस लेख के जरिए यहां मैं सिर्फ एक राज्य त्रिपुरा की मिसाल पेश करुंगा, जिसे देश का तीसरा सबसे छोटा राज्य होने का गौरव प्राप्त है। इस राज्य को नेचर, ईको और वाटर टूरिज्म के लिए जाना जाता है जहां आदिवासियों की संख्या अच्छी खासी है।
दरअसल, त्रिपुरा का नाम भी आदिवासी जाति पर ही है, जिनकी खुद की स्थिति बेहतर नहीं है। इनकी स्थिति पर गौर करें तो कई नए तथ्य सामने आते हैं। सन् 2001 की जनगणना के मुताबिक त्रिपुरा की कुल आबादी 3,199,203 थी। इसमें 993,426 लोग जनजाति से आते हैं। यानी कुल आबादी का 31.1 प्रतिशत लोग जनजाति से आते हैं । इस जनजाति के आदिवासी जनसंख्या में 54.7 प्रतिशत लोग रहते हैं। रियांग 16.6 प्रतिशत,जमातिया 7.5 प्रतिशत,चकमा 6.5 प्रतिशत,हलम 4.8,माग 3.1,मुंडा 1.2, कुकी 1.2,गारो 1.1 प्रतिशत आदिवासी रहते हैं।
हालांकि, त्रिपुरा में आदिवासी आबादी में शिक्षा का स्तर थोड़ा संतोषजनक है, करीब 57 फीसदी है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी साक्षरता दर 47.1 प्रतिशत ही है। इसमें पुरूषों की साक्षरता दर 68 प्रतिशत और औरतों में साक्षरता दर 44.6 प्रतिशत है। इससे यह भी पता चलता है कि औरतों में मर्दों की तुलना में साक्षरता का प्रसार कम हुआ है। त्रिपुरा के आदिवासियों में कुकी जनजाति के लोग सबसे ज्यादा शिक्षित है, जिनकी तादाद 73.1 फीसदी है। जबकि त्रिपुरा जनजाति में साक्षरता दर 62.1 फीसदी है। दूसरी ओर चकमा,मुंडा और रियांग जनजाति में आधी से ज्यादा आबादी अब भी निरक्षर है। और 55 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे अपना गुजर बसर करती है।
इसी तरह अगर हम रोजगार की बात करें तो, 2001 की जनगणना के मुताबिक त्रिपुरा की आदिवासी आबादी का सिर्फ 42.7 प्रतिशत कोई न कोई काम करता है। जिसमें रबर की खेती अहम है, जो वहां के उन गरीब आदिवासियों के जीवन को बेहतर बना रही है जो ‘झूम’ या स्लैश एवं बर्न खेती करते थे और इस खेती से इलाके की अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव आया है। इसी का नतीजा है कि त्रिपुरा केरल के बाद दूसरा सबसे बड़ा रबर खेती क्षेत्र बन गया है, जहां प्राकृतिक रबर की खेती की जाती है। अब हालात ये हैं कि न केवल झुमिया परिवार या असंगठित मज़दूर बल्कि सरकार को आत्मसमर्पण कर चुके आतंकवादी भी रबर की खेती से जुड़ चुके हैं।
लेकिन, इसके बावजूद भी शिक्षित युवाओं का एक बड़ा तबका बेरोजगार है। क्योंकि युवाओं की नई पीढ़ी पढ़ाई करने के बाद खेती नहीं करना चाहती। और ऐसे शिक्षित युवाओं के लिए ऐसी छोटी जगहों पर रोजगार के अवसर काफी सीमित है। जिसकी वजह से शिक्षित युवा नौकरी की तलाश में अन्य राज्यों की ओर पलायन कर जाते हैं। उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि वो कैसे अपने इलाके में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल कर कोई व्यवसाय कर सकें। ऐसे में जरूरत है किसी ऐसे संस्थान की जो उन्हें उनकी योग्यता के मुताबिक पूरी जानकारी मुहैया कराने के साथ-साथ उनका मार्ग दर्शन भी कर सके।
<strong>ओसामा मंजर</strong>
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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