यूं तो रस्म अदायगी के लिए हम हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाते हैं और इसी बहाने पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधा कृष्णन को भी याद कर लेते हैं। लेकिन, सच पूछें तो आधुनिक दौर में शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य से हम कोसों दूर निकल चुके हैं। किसी को अपने व्यवसायिक जीवन में फुर्सत ही नहीं है कि खुद को एक कामयाब इंसान बनाने वाले को पल भर भी याद कर लें। आर्थिक उदारीकरण के दौर में हर एक को आगे बढने की होड लगी है। समय के साथ हम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भी रोजाना नई ऊंचाइयों को छू रहें है , आदमी चाँद के बाद मंगल तक पहुँचने का ख्वाब देख रहा है । समय की मांग के मुताबिक साइंस, टेक्नोलॉजी, प्रॅफेशनल औऱ जॉब-ओरिएंटेड कोर्सों की मांग दिनों दिन जा रही है। लेकिन, नैतिकता और मानवता के मामले में हम हर पल नीचे गिरते जा रहें है । इतनी सफलता के बाद भी हम शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य से दूर जा रहे है ।
लेकिन, ऐसे माहौल में ये सवाल लाजमी हो जाता है कि आखिर शिक्षा क्यों जरूरी है और इसका मकसद क्या है? यहां ये समझना जरूरी है कि डिग्री हासिल करना और शिक्षा हासिल करने में फर्क है। शिक्षा ज्यादा व्यापक चीज है, समाज को आगे ले जाने में सबसे अहम भूमिका शिक्षा की ही होती है।
दरअसल, हम शिक्षा के सही उद्देश्य को ही नहीं समझ पा रहे है । आज देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा एक बड़े व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है। जहां एक तरफ छात्रों की संख्या बढ़ी है, तो वहीं जहाँ छात्र उपभोक्ता की हैसियत में आ गया है ,उच्च शिक्षित होने के बाद वह बाजार में एक उत्पाद की तरह पेश होने लगा है। यहाँ पर शिक्षक और छात्र दोनों के बीच रिश्ते कमजोर पड़ने लगते है । जहाँ रिश्ता पूरी तरह प्रोफेशनल होता है, वहां नैतिक मूल्य बहुत पीछे छूट जाते है। दोनों के बीच इस दूरी के घटने और सिमटने का व्यावसायिक, आर्थिक फायदा तो है, लेकिन अधिकांशतया मानवीय मूल्यों को चोट पहुँचती है ।
सही मानो में शिक्षा का सवाल जितना मानव की मुक्ति से जुड़ा है उतना किसी दुसरे विषय या विचार से नहीं । देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी एक बार ब्रिटेन के एडिनबरा यूनिवर्सिटी मे भाषण के दौरान कहा था कि शिक्षा और मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। पर आज जब मुक्ति का अर्थ ही बेमानी हो जाय, उसका लक्ष्य ‘सर्वजन हिताय’ की परिधि से हटकर घोर व्यैक्तिक दायरे में सिमट जाय तो क्या किया जा सकता है ।
देश की नई पीढ़ी की समझ और सूचना का संसार बहुत व्यापक है। उसके पास ज्ञान और सूचना के अनेक साधन हैं जिसने परंपरागत शिक्षकों और उनके शिक्षण के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। नई पीढ़ी बहुत जल्दी और ज्यादा पाने की होड़ में है। उसके सामने एक अध्यापक की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है।
हम भले ही हर साल शिक्षक दिवस मना लें, लेकिन अगर सम्मानीय शिक्षक अपनी जिम्मेदारी नहीं समझेंगे तो शिक्षा क्रांति क्या, शिक्षा विश्व युद्ध से भी कोई तब्दीली नहीं आएगी। एक आंकड़े के मुताबिक देश में 13 लाख स्कूली अध्यापकों के पद खाली हैं। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में 40 फीसदी पद खाली हैं। लेकिन विडंबना तो यह है कि एक तरफ तो शिक्षकों का टोटा है, वहीं देश के तकरीबन हर राज्य में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया भ्रष्टाचार की जद में है। हरियाणा, उप्र, बिहार और हिमाचल प्रदेश का नाम तो शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में व्याप्त भ्रष्टाचार में सबसे आगे है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारतीय शिक्षा तंत्र में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है। करप्शन इन एजुकेशन नाम की इस स्टडी रिपोर्ट में कहा गया था कि भारतीय स्कूलों के शिक्षक स्कूल से गायब रहने में सबसे आगे हैं। वैश्विक स्तर पर देखें तो युगांडा ही ऐसा देश है, जहां के शिक्षक स्कूल से गायब रहने में हमसे आगे हैं।
क्या ये वही देश है जहां कभी नालंदा विश्वविद्यालय हुआ करता था? क्या यह वही देश है जिसने हर काल में शिक्षा जगत में कई प्रतिमान गढ़े। लार्ड मैकाले ने 1834 में ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने एक वक्तव्य में कहा था कि मैंने उत्तर से दक्षिण तक सम्पूर्ण भारत का भ्रमण और अध्ययन किया, पर कोई भी गरीब या भिखारी नहीं मिला मुझे, शिक्षा का ऐसा प्रबंध है वहां कि हर कोई शोध कर सकता है। गौर करने वाली बात ये है कि फिर हम इस हालात पर कैसे पहुंचे?
क्योंकि इस क्षेत्र में हमने कभी लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं समझी। वक्त के साथ खुद को बदलने की कोशिश नहीं की।
21वीं सदी के इंटरनेट युग में भी खुद को तकनीकी शिक्षा को नजरअंदाज किया। लेकिन, अब समय रहते इसे दोबारा पटरी लाने की जरूरत है। औऱ इसके लिए हाईटेक संचार माध्यम को अपनाना होगा, जो बिना भेदभाव के सबको संचार और तकनीक की डोर से बांध सकता है।
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