लिंचिंग के संदर्भ में सरकार द्वारा किये जा रहे सोशल मीडिया के नियमों में बदलाव को लेकर आम आदमी असहज दिख रहे हैं. उन्हें डर है कि ऐसे बदलावों से उनकी निजता प्रभावित होगी.
आसिफ इक़बाल
(सड़क के किनारे सरसों के खेत)
भीड़ के द्वारा हो रही हत्याएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं. आए-दिन कहीं न कहीं से हत्या की ख़बरें आती रहती हैं. कहीं गाय ले जा रहे किसी व्यक्ति को कोई भीड़ घेर कर हत्या कर देती है, तो कहीं बच्चा चोर के नाम पर किसी सड़क चलते व्यक्ति की भीड़ जान ले लेती है. बिहार में हाल ही में भीड़ ने गाय कि चोरी ने नाम पर 3 व्यक्ती की पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी थी. ऐसी घटनाओं में 2014 कि बाद तेजी से बढ़ोतरी हुई हैं. इंडियास्पेंड कि रिपोर्ट के अनुसार, 2010 से 2019 कि बीच में लिंचिंग की 94 घटनाएँ हुई थी, जिस में 35 लोग मारे गए और 224 व्यक्ति घायल हुए. ऐसी घटनाओं में, 2014 के बाद से तेजी से वृद्धि हुई है. लिंचिंग की सब से अधिक 44 घटना 2017 में दर्ज की गयी थी. लिंचिंग को रोकने के लिए सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है. सरकार सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहरा कर अपना पल्ला झाड़ने का पूरा प्रयास कर रही है. ऐस बताया जा रहा है कि भीड़ के द्वारा की जा रही हत्याओं के लिये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स जैसे, व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्विटर इत्यादिपर हो रहे दुष्प्रचार और फेक न्यूज़ जिम्मेदार हैं.
दुष्प्रचार और फेक न्यूज़ को रोकने के लिए सरकार ने आईटी एक्ट 2000 में, इन्टरमेडीअरी-फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर इत्यादि- को ले कर कुछ बदलाव प्रस्तावित किये हैं. इस में एंड टू एंड एन्क्रिप्शन ख़त्म, आर्टिफीसियल इंटेलीजेन्स के द्वारा कंटेंट मॉडरेशन और मूल सन्देश भेजने वाले तक पहुँचने जैसे प्रस्ताव शामिल हैं. इन बदलावों के कारण सरकार की मंशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं. निजता पर हमले से लेकर असहमति रखने वाले आवाजों को कुचलने के लिए इसका उपयोग किये जाने कि आशंका जताई जा रही है. राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में हमने जानने का प्रयास किया के लोग निजता, फेक न्यूज़ लिंचिंग और सोशल मडिया पर क्या राय रखते हैं और इस सारे घटनाक्रम को कैसे देख रहे हैं.
“..सत्यापित करना हमारे लिए संभव नहीं है.”
राजस्थान का नकछपुर गाँव अलवर शहर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. उखड़ी पड़ी सड़कों के दोनों तरफ लहलहाते सरसों के खेत औद्योगिक होते इस शहर को जैसे चिढ़ा रहे हों. गाँव के अधिकतर लोग खेती किसानी करते हैं. गाँव के शुरू होते ही चाय की एक दुकान पर ठण्ड की कंपकपाहट को मात देने के लिए कुछ लोग खिली धूप में बैठ कर चाय का आनंद ले रहे हैं. यहाँ से सिर्फ 30 किलोमीटर दूरी पर ही लालावंदी में 20 जुलाई 2018 को गाय तस्करी के नाम पर रक्बर खान की हत्या कर दी गयी थी. पहले ये बात फैलाई गयी कि कुछ लोग गाय की तस्करी करते हैं. ऐसे दूषित वातावरण में रक्बर जब अपने मित्र असलम खान के साथ पड़ोस के गाँव खानपुर से दो गायों को लेकर अपने घर जा रहे थ, विश्व हिन्दू परिषद् के सदस्यों ने उन्हें लालावंदी गाँव में घेर लिया. द वायर कि एक रिपोर्ट्स के अनुसार गजराज यादव नामक व्यक्ति ने गौ रक्षकों को इसकी जानकारी दी थी. वे पहले से वहां इंतज़ार कर रहे थे. इसी तरह, 15 वर्षीय जुनैद खान की भी इस आरोप में ह्त्या कर दी गई थी कि वह गाय का मांस ले जा रहा था. उसे सिर्फ इस संदेह के कारण बल्लभगढ़ में चलती ट्रेन में बुरी तरह पिटाई करने के बाद ट्रेन के बाहर फ़ेंक दिया गया था. भीड़ के द्वारा की जा रही निर्मम हत्याओं ने देश को झकझोर कर रख दिया है.
पेशे से किसान, 35 वर्षीय राजेंद्र पिछले 4 साल से मोबाइल का उपयोग करते आ रहे हैं. वह कहते हैं, “हम अधिकतर सूचनाएं अखबार और टेलीविज़न से हासिल करते हैं. मोबाइल पर भी आजकल लोग अफवाह फैलाते रहते हैं इसलिए हम व्हाट्सएप्प पर मिली किसी भी प्रकार की सूचनाओं को आगे नहीं भेजते हैं,”. यह पूछने पर कि ऐसा क्यूँ , तो वो कहते हैं, “सोशल मीडिया पर आई जानकारियों को सत्यापित करना हमारे लिए संभव नहीं है”. इसी क्षेत्र में गाय के नाम पर पहले पहलू खान की भी हत्या हो चुकी है. लोग शायद इस कारण भी बात करने में सावधानी बरत रहे हैं. प्रचलित अवधारणा के विपरीत लोग ऐसे किसी भी सन्देश को फॉरवर्ड करने से बचते नज़र आ रहे हैं. फेक न्यूज़ जैसी समस्या से अवगत भी नज़र आ रहे हैं. राजेंद्र के बगल में बैठे 35 वर्षीय जाकिर चाय का घूँट लेते हुए कहते हैं, “यूट्यूब पर अधिकतर जानकारियां मुझे गलत ही लगती हैं, एक- दूसरे के ख़िलाफ भड़कानेवाली बातें बहुत से लोग शेयर करते रहते हैं.”
(ज़ाकिर खान और राजेंद्र)
वहीं, हरियाणा के फतेहपुर गांव में बिल्डिंग मैटेरियल्स की दुकान चलानेवाले 35 वर्षीय तारीफ़ खान मानते हैं कि सोशल मीडिया के आने से सूचनाएं ठीक ढंग से बाहर आ रही हैं. दिल्ली से महज़ 35 किलोमीटर दूर, फरीदाबाद जिले में आने वाला यह क्षेत्र एनसीआर में होने के कारण यहाँ ज़मीन की मूल्यों में बहुत तेज़ी से उछाल आया है.यहाँ के किसानों ने जमीन बेचकर पक्के मकान बना लिये हैं. लेकिन अब भी अधिकतर आबादी खेती से जुड़े कामों पर ही निर्भर है. ज़मीन की उपलब्धता और दिल्ली से नज़दीक होने के कारण, पिछले कुछ वर्षों में बड़ी संख्या में यहाँ कॉलेज और यूनिवर्सिटी खुल गए हैं.
तारीफ़ कहते हैं कि सोशल मीडिया के आने से सच को छुपाना अब आसान नहीं रहा. उन्होंने कहा, “टेलीविज़न और अखबार ने तो सच दिखाना ही बन्द कर दिया है,” यह पूछने पर कि ऐसा क्यों लगता है , वे कहते हैं, “हमारे चारोँ तरफ कॉलेज ही कॉलेज हैं, सभी प्रकार के बच्चे यहाँ आते हैं इंजीनियरिंग से ले कर MBA तक करने के लिए. उनमें से बहुत कम छात्र को ही नौकरी मिल पाती है. सब कहते रहते हैं कि नौकरी ही नहीं है. न्यूज़ वाले ये कभी कहाँ दिखाते हैं. बस हर समय हिन्दू-मुस्लिम मामले ही दिखाने का प्रयास करते रहते हैं. सोशल मीडिया के कारण ही थोड़ी बहुत जानकारी मिल पाती है,” वह आगे जोड़ते हैं, “ये भी सच है कि वहां भी गलत-गलत बात साझा किए जाते हैं”. ये पूछने पर कि आप कैसे समझ पाते हैं कि कौन सी जानकारी सही है, तो वो कहते हैं, “भाषा से समझ जाते हैं. आस-पास की कोई घटना हो तो हम खुद भी जा कर जानने का प्रयास करते हैं.”
खोरा निवासी, 24 वर्षीय संजय कुमार एलइडी बल्ब के व्यापारी हैं. संजय कहते हैं, “फेक न्यूज़ तो हर तरफ है. आपस में भी लोग हर प्रकार की बातें करते हैं. शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शन को ही देख लें, दो तरह की बातें चल रही है. कोई कह रहा वहां पैसे लेकर लोग धरना प्रदर्शन कर रहे हैं वहीं कोई कह रहा कि लोग हाल में पास हुए क़ानून को भेदभावपूर्ण करने वाला कहकर प्रदर्शन कर रहे हैं.” ग़ाज़ियाबाद जिले में आने वाला खोरा गाँव जो कि कुछ साल पहले तक एक साधारण गाँव भर था, नोएडा और ग़ाज़ियाबाद के विकसित होने के बाद यहाँ बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से मज़दूर आकर बसते चले गए. यहाँ के अधिकतर स्थानीय लोगों ने उन्हें मकान किराये पर देना शुरू कर दिया, दुकाने खोल ली और खेती से दूर होते चले गए. इस गाँव का एक छोड़ ग़ाज़ियाबाद से, दूसरा छोड़ नोएडा से तो वहीं एक छोड़ राजधानी दिल्ली से लगता है. सड़क के दोनों छोड़ पर दुकानें और उन दुकानों के बगल से निकलती तंग गलियां, उन गलियों में हॉर्न बजाती गाड़ियों से अब ये गाँव, गाँव से कहीं अधिक शहर लग रहा है. संजय आगे जोड़ते हैं, ”सिर्फ सोशल मीडिया को देख कर फैसला कर पाना कठिन है कि कौन सही है और कौन झूठ बोल रहा है.”
(खोरा गाँव, ग़ज़िआबाद)
फ़िलहाल फेक न्यूज़ का सारा जाल हाल में ही संसद से पास हुए नागरिकता संशोधन कानून 2019 को लेकर बुना जा रहा है और इसे सोशल मीडिया पर फैलाया भी जा रहा है. इस क़ानून को लेकर पूरे देश में धरना-प्रदर्शन चल रहे हैं. इसमें मुसलमानों को छोड़कर पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आये सभी धर्म के, धार्मिक रूप से प्रताड़ित लोगों को नागरिकता देने की बात कही गयी है. शाहीन बाग में पिछले दो महीने से भी अधिक समय से लोग इस कानून के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण ढंग से धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं.
“आज तक, जी न्यूज़, सबने दिखाया है..”
लेकिन ऐसा कहना कि लोग किसी भी प्रकार के फेक न्यूज़ को फॉरवर्ड नहीं कह रहे हैं, ग़लत होगा. ऐसी खबरें जो कि सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही हों और उसे मुख्यधारा के न्यूज़ चैनल्स भी दिखा दें तो उस ख़बर की विश्वसनीयता अधिक हो जाती है. उसे अधिक लोग शेयर भी करते हैं. शाहीन बाग़ को लेकर तमाम तरह के मैसेज शेयर किये जा रहे हैं.
फतेहपुर से कुछ दूरी पर धौज गांव में 35 वर्षीय दिनेश गर्ग की चप्पलों की दुकान है. उनका भी मानना है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के सस्ते होने के कारण फेक न्यूज़ में बहुत तेजी आई है, लेकिन हम ऐसे किसी भी मैसेज को साझा नहीं करते हैं. यह पूछने पर कि वो कौन से मैसेज होते हैं जिन्हें वे दूसरों से साझा करते हैं, तो इस पर वह कहते हैं, “जो देशहित में हो,” वह आगे जोड़ते हैं, “प्रदर्शन के नाम पर लोगों ने सैकड़ों बसें जला दी. सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं. 500-500 रुपये लेकर लोग धरणा पर बैठे हुए हैं. देशविरोधी गतिविधियां करते हैं तो इस प्रकार के मैसेज को अपने दोस्तों के साथ साझा करके उन्हें भी जानकारी देते हैं,” यह पूछने पर कि ये जानकारी आप को सही लगती है, तो वह कहते हैं, “हाँ. मेरे व्हाट्सएप्प पर भी आया था, ज़ी न्यूज़ भी ऐसी कई न्यूज़ दिखा चुका है.”
(मोबाइल में न्यूज़ चैनल के लिए डाउनलोड हुए एप्लीकेशन)
अधिकतर लोग मुख्यधारा के न्यूज़ चैनल्स भी, उन न्यूज़ चैनल्स के एप्लीकेशन के माध्यम से ही देखते हैं. टीवी देखना कम कर दिया है. दुकानें चलाते हुए, ट्रेनों में यात्रा करते हुए भी लोग न्यूज़ देख पाते हैं. इसके कारण वे अलग-अलग चैनल्स नहीं देख पाने का नुकसान समझ नहीं पा रहे हैं. सभी ने कोई कोई एप्लीकेशन अपने फ़ोन में डाउनलोड कर रखा है. किसी एक चैनल पर खबरों को देख भर पाने के कारण वे सूचनाओं के अलग-अलग पक्ष को भी समझ नहीं पाते हैं. और इसका फल यह होता है कि वे एक आभासी घेरे में घिरते चले जाते हैं.
43 वर्षीय खोरा निवासी मान सिंह भी कुछ इसी तरह की बात बताते हैं. मान सिंह कहते हैं कि शाहीन बाग़ का पूरा प्रदर्शन विपक्षी राजनितिक दल करवा रहे हैं. वह कहते हैं, “500 और बिरयानी अगर प्रतिदिन मिले तो काम करने क्यूँ कोई जायेगा. लोग प्रदर्शन ही करने जायेंगे,” पूछने पर की ऐसी ख़बरें आप तक कहाँ से पहुँचती है तो कहते हैं, “आज तक, जी न्यूज़ सब ने दिखाया है. मेरे बेटे के मोबाइल पर ऐसे विडियो आते रहते हैं.”
ऑल्ट न्यूज़ जैसी फैक्ट चेकिंग वेबसाइट ने विडियो को अपने सत्यापन में गलत पाया था इन वीडियो को ग़लत सन्दर्भ देकर फैलाया जा रहा है. जो वीडियो सोशल मीडिया पर फैलाई गयी थी वह कहीं और की थी. इस वीडियो को भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल के मुखिया अमित मालवीय ने ट्वीट कर साझा किया था. इसे रिपब्लिक टीवी, टाइम्स नाउ और इंडिया टुडे जैसे मुख्यधारा के न्यूज़ चैनल्स ने भी प्रसारित किया था.
“पुलिस भी हिंसात्मक होती भीड़ के साथ खड़ी हो जाती है..”
अधिकतर लोग बढ़ रही धार्मिक हिंसा के लिए क़ानून व्यवस्था को सोशल मीडिया से अधिक जिम्मेदार मानते हैं. धौज निवासी, 40 वर्षीय नसीम खान कहते हैं कि ये बात ज़रूर है कि मोबाइल पर बहुत से लोग लड़ने-लड़ाने की बात करते हैं लेकिन हिंसा रोकने का काम तो पुलिस का है, पर जब पुलिस ही हिंसात्मक होती भीड़ के साथ खड़ी हो जाती है तो हिंसा कैसे रुकेगी? वह कहते हैं, “आप ही कहिये, मैं अभी किसी को फ़ोन मिलाकर गाली दूं, तो इसके लिए मैं जिमेदार हूँ, या एयरटेल जिसका मैं सिम कार्ड उपयोग कर रहा हूँ?”
(नसीम खान, धौज)
वहीं नर सिंह जो कि खोरा गाँव में कपड़े की एक दुकान चलाते हैं कहते हैं कि हिंसा में शामिल अधिकतर लोग अपनी राजनितिक महत्वाकांक्षा के लिए सामने आकर भीड़ को उकसाते हैं. वह कहते हैं, “मोबाइल के उपयोग से पहले भी लोग धार्मिक उन्माद फैलाते रहे हैं. एक-दूसरे को मारते काटते रहे हैं. ये सब हिन्दू-मुसलमान करके बस अपनी राजनीति करना चाहते हैं.”
चिन्मय अरुण भी इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली की अपनी रिपोर्ट् में कहते हैं कि यह स्पष्ट है कि लिंचिंग में फेक न्यूज़ की तुलना में भड़काऊ भाषण अधिक ज़िम्मेदार हैं. हिंसा के संदर्भ में समस्या की जड़ पर ध्यान देने की आवश्यकता है. राजनितिक संरक्षण के कारण भीड़ को एक प्रकार की छूट मिलती है. पुलिस भी इनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं कर पाती है. बिना सत्ता संरक्षण के लिंचिंग जैसी घटना को अंजाम दे पाना कठिन है. रक्बर खान की हत्या में भी ये बात दिखती है कि विश्व हिन्दू परिषद् के क्षेत्रीय नेता नवल किशोर शर्मा ने रक्बर को गायें ले जाते हुए पकड़ा और बुरी तरह से पीटा था. और वहीं उस क्षेत्र के सत्ताधारी पार्टी के विधायक ज्ञान देव आहूजा पर भी इल्जाम लगाया गया था कि उन्होंने भीड़ को उकसाने का काम किया था. बाद में ज्ञान देव आहूजा को पार्टी ने राज्य का उपाध्यक्ष बना दिया. रक्बर खान को अस्पताल ले जाने से लेकर इस मामले की एफआईआर दर्ज कराने तक के मामले को लेकर पुलिस को शक के घेरे में खड़ा किया जाता रहा है. बताया जाता है के पुलिस ने जख्मी पड़े रकबर को अस्पताल ले जाने की जगह गाय को गौशाला पहुँचाने को तरजीह दी थी. वहीं असलम खान, जो की गाय ले जाते समय रक्बर के साथ मौजूद थे, के नाम लेने के बाद भी विश्व हिन्दू परिषद् के ज़िला अध्यक्ष को एफआईआर में नामजद तक नहीं किया गया. जिन तीन पर पुलिस ने मुक़दमा दर्ज किया था वह भी विश्व हिन्दू परिषद् के सदस्य हैं. हालाँकि, राजस्थान में नयी सरकार आने के बाद लिंचिंग की घटना कम हुई है.
“निजता नहीं प्राइवेसी कहिये…”
इन्टरमेडीअरी में किये जा रहे बदलाव जिसमें एंड टू एंड एन्क्रिप्शन ख़त्म करने की बात मुख्य रूप से कही गयी है. सरकार के इस क़दम से फेक न्यूज़ पर कितना लगाम लग पायेगा ये कह पाना कठिन है, लेकिन निजता की समस्या ज़रूर खड़ी हो रही है. तकनीक हमारे जीवन में अपार संभावनाओं के साथ-साथ नुकसान भी साथ ले कर आती है. ऐसे समय में जब हर तरफ से लोकतान्त्रिक मूल्यों पर हमले हो रहे हैं, निजता पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है. एनक्रिप्शन, तकनिकी होते लोकतंत्र में जनता की निजता के लिए सब महत्त्वपूर्ण तकनीक है. निजता का सवाल लोगों को बेचैन करता ज़रूर आ रहा है, मगर इतना नहीं कि वो व्हाट्सएप्प या फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का उपयोग करना छोड़ दें. उनके जीवन के यह अहम् हिस्सा बन गया है. व्यापार से ले हर तरह बात-चित के लिए इन माध्यमों का उपयोग करते हैं. हम शहरों में कॉफ़ी टेबल पर बैठ कर बात करने वालों में से अधिकतर को लगता है कि गाँव के लोगों के लिए निजता जैसे सवाल कोई मायने नहीं रखते हैं. हालांकि, अधिकतर लोगों का मानना है कि किसी भी संस्था या सरकार को ऐसा एकाधिकार देने से उसके गलत उपयोग होने के खतरे बने रहेंगे. तारीफ कहते हैं कि कंटेंट मॉडरेशन जैसा कुछ होना चाहिए जिससे फेक न्यूज़ को रोका जा सके, लेकिन उन्हें लगता है कि ये सरकार विपक्ष और सरकार से असहमति रखने वाली आवाज को दबा भी सकती है. वह कहते हैं, “इस सरकार का विश्वास नहीं किया जा सकता,” वह आगे तंज कसते हुए जोड़ते हैं, “छूरी आपके पास है. ये तो आप पर निर्भर करता है कि इसका उपयोग आप कैसे करते हैं. सब्जी काटने के लिए या गर्दन काटने के लिए.”
वहीं नकछपुर के जाकिर कहते हैं कि हम आपस में क्या बातें करते हैं किसी को नहीं पढना चाहिए. वह कहते हैं, “हम घर-परिवार में जो बातें करते हैं वो कोई और भी सुने यह कैसे किसीको अच्छा लगेगा.”
खोरा गाँव के 23 वर्षीय हिमांशु यादव दवा की अपनी दुकान पर अपने मित्र वंश यादव के साथ बैठे बातें कर रहे हैं. दुकान पर इक्के-दुक्के ग्राहक भी आ रहे हैं.ग्राहक को दवा देते हुए हिमांशु कहते हैं कि निजता नहीं प्राइवेसी कहिये. हम समझते हैं सब. वो आगे कहते हैं, “व्हाट्सएप्प अगर एन्क्रिप्शन खत्म करती है तो हमारी प्राइवेसी का क्या होगा, ऐसा बिलकुल नहीं होना चाहिये. हम अपनी पर्सनल ज़िन्दगी में क्या बातें करते हैं इसे किसी को नहीं पढ़ना चाहिए.” यह पूछने पर कि फिर फेक न्यूज़ को कैसे रोकेगी सरकार , तो वे कहते हैं, “ये तो सरकार सोचे बड़ी-बड़ी संस्थाएं सोचे, कुछ लोग ऐसा करते हैं उसके लिए हम सब की प्राइवेसी खत्म नहीं की जानी चाहिए.”
हिमांशु आगे कहते हैं की यह सरकार ऐसे क़ानून लाकर, अपने ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ को दबा देना चाहती है. वह कहते हैं, “प्राइवेसी तो हमारा मौलिक अधिकार है. कोर्ट ने भी तो य ही कहा था. इस को कोई कैसे छीन सकता है.” वहीं उनके मित्र वंश यादव उनकी बात से असहमत नज़र आते हैं. वंश कहते हैं, “पहली बार कोई सरकार आई है जो राष्ट्रहित को ऊपर रख कर सोच रही है. हमें इस सरकार का साथ देना चाहिए.” दोनों मित्र को बीच बहस में छोड़ कर मैं निकल पड़ता हूँ अपने शहर दिल्ली, जहाँ कुछ दिनों में चुनाव होने वाले हैं और जहाँ के लोग फेक न्यूज़ से सबसे ज्यादा ग्रसित नज़र आते हैं.
(पांच लेखों के क्रम यह दूसरा लेख है)