मनीषा देवी राशन कार्ड का आवेदन दिये हुए 2 साल अधिक हो चुके हैं, लेकिन उन्हें अब तक अपने राशन कार्ड का इंतज़ार है. अलग-अलग राज्यों में लाखों राशन कार्ड के आवेदन सरकारी फाइलों में धुल खा रहे हैं.
आसिफ इक़बाल
(मनीषा देवी)
(यह आर्टिकल14 पर प्रकाशित लेख का हिंदी अनुवाद है. आर्टिकल14 क़ानून-व्यवस्था और भारतीय लोकतंत्र के मुद्दों पर काम करती है. This is a Hindi translation of Article14‘s story. Article-14 is focused on issues around the rule of law and democracy in India)
बिहार के पश्चिमी चंपारण के पचकहर गांव की 35 वर्षीय मनीषा देवी को राशन कार्ड में संशोधन के लिए आवेदन दिए हुए इस महीने की 27 तारीख को पूरे दो वर्ष हो जायेंगे, उन्हें अपने राशन कार्ड का अब तक इंतज़ार है. मनीषा कहती हैं, “राशन कार्ड के लिए चक्कर लगा-लगा कर थक गयी, अब तक राशन कार्ड बन कर नहीं आया”. मनीषा के पति देहाड़ी-मज़दूरी का काम करते हैं. 3 बच्चों कि माँ मनीषा आगे कहती हैं, “लॉकडाउन से पहले हम भी खेतों में कुछ काम कर लेते थे, मेरे पति को भी गांव में काम मिल जाता था, जिस से परिवार किसी तरह चल रहा था. अब तो उधार लेकर किसी तरह खाने का इंतेज़ाम कर रहे हैं, लेकिन ऐसा कब तक चलेगा कुछ समझ नहीं आ रहा है.”
मनीषा का नाम पहले अपने पिता के राशन कार्ड में शामिल था. लेकिन विवाह के बाद जब वह राशन कार्ड की ज़रुरत पड़ी तो उन्होंने संशोधन का आवेदन किया था. मनीषा कहती हैं, “बच्चे भूखे न रहे इस लिए 7,000 रुपया ब्याज पर लिया है. मुझे नहीं पता कैसे चुकाऊँगी”.
वहीं उनके पड़ोस में रहने वाले सिकंदर ख्वास मुंबई में रहते थे. रिश्तेदार की शादी में आये हुए थे की लॉकडाउन कि घोषणा हो गयी. अब न ही उनके पास कोई काम है और न ही घर में राशन. उन्होंने भी 2018 में ही राशन कार्ड के लिए आवेदन दिया था, लेकिन अब तक नहीं बना है. वह कहते हैं, “नरकटियागंज का चक्कर लगा-लगा कर थक गए लेकिन राशन कार्ड नहीं बना. 10-10 लोग एक साथ प्रखंड पर गए, मुखिया जी के यहाँ भी गए, लेकिन फिर भी कोई सुनवाई नहीं हुई,” दो बच्चों के पिता सिकंदर आगे जोड़ते हैं, “आज राशन कार्ड होता तो परिवार को 2 समय भोजन कराने के लिए दूसरों पर आश्रित नहीं रहना पड़ता.” सिकंदर ने भी अपने एक रिश्तेदार से 5000 उधार लिया है.
दरअसल कोरोना वायरस के कारण पूरी दुनिया के सामने अब तक का सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया है. हमारी पीढ़ी तो निश्चित ही अब तक के सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है. चीन के वुहान से शुरू हुए इस वायरस के चपेट में दुनिया के लगभग सभी देश आ चुके हैं. विश्व भर में 60 लाख से अधिक लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं और 3.9 लाख से अभी अधिक लोग की मौत हो चुकी है. भारत में भी 1 लाख 91 हज़ार से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं और 5,000 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. इसके संक्रमण को रोकने के लिए भारत सरकार ने 25 मार्च को 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा गयी थी, जिसे लेख लिखते समय बढ़ा कर 31 मई तक कर दिया गया है.
लॉकडाउन के कारण करोड़ों लोगों को काम मिलना बंद हो गया है. सबसे अधिक असर असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों पर पड़ा है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार लॉकडाउन के कारण तक़रीबन 12 करोड़ो लोगों की नौकरी जा चुकी है, जिसमे 75 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते थे.
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना की घोषणा की जिसमें परिवार के प्रत्येक सदस्य को 5 किलो चावल या 5 किलो गेहूं के साथ-साथ 1 किलो दाल मुफ्त देने की बात है, लेकिन यह राशन उनको ही मिलेगा जिनके पास राशन कार्ड है. भारत सरकार ने 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पास किया, जिसके तहत गरीबी रेखा के नीचे आने वाले परिवारों को ये वस्तुएँ सब्सिडी वाले दर पर देने की बात कही गयी है. ग्रामीण क्षेत्र में 75 प्रतिशत जबकि शहरी क्षेत्र में 50 प्रतिशत आबादी को राशन देने की बात कही गयी है जो कि कुल आबादी का 67 प्रतिशत है. आम दिनों में भी इस प्रणाली में ढेरों कमियाँ रहीं हैं, लेकिन इस महामारी के समय में यह कमियाँ और उभर कर सामने आने लगी हैं.
राष्ट्रीय सार्वजनिक प्रणाली से बाहर है करोड़ों परिवार
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, रीतिका खेरा और मेघना मुंगीकर के हाल में किये गए आकलन के अनुसार भारत में कम से कम 10 करोड़ परिवार राष्ट्रीय सार्वजनिक प्रणाली से बाहर हैं. इस आकलन के अनुसार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत आने वाले परिवारों को 2011 के जनगणना के आधार पर लिया गया है. 2011 में भारत की आबादी 122 करोड़ थी जिसमें से 67 प्रतिशत, यानी 80 करोड़ को राशन दिये जाना का दवा किया जा रहा है, जबकि 2020 के आंकड़े के अनुसार भारत की आबादी 122 करोड़ से बढ़ कर 137 करोड़ हो गयी है लेकिन राशन अभी भी 80 करोड़ या उससे कम लोगों को ही दिया जा रहा है, जबकी मिलना लगभग 90 करोड़ परिवारों को चाहिये. सरकार को चाहिए कि आकलन करके बताये कि कितने परिवारों को राशन दे रही. उत्तर प्रदेश और बिहार में अंतर सबसे अधिक बढ़ जाता है. उत्तर प्रदेश में 2 करोड़ 80 लाख वहीं बिहार में 1 करोड़ 80 लाख है.
जबकि उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री रामविलास पासवान ने कहा है कि राष्ट्रीय सार्वजनिक प्रणाली के अंतर्गत मात्र 71 करोड़ लोगों को ही लाभ मिलेगा, जिसमें से अभी 39 लाख लाभार्थी को राशन कार्ड नहीं होने कारण लाभ नहीं पहुँच पा रहा है. सिर्फ बिहार में ऐसे लोगों कि संख्या 14 लाख है.
राइट टू फ़ूड कैंपेन से जुड़े सिराज दत्ता कहते हैं कि ऐसे परिवार भी बहुत हैं जिनका राशन कार्ड में नाम था, मगर वह कहीं काम करने के लिए घर से चले गए तो उनका नाम राशन कार्ड से हटा दिया गया, लॉकडाउन के समय जब लोगों को काम नहीं मिल रहा है तो घर के तरफ लौट रहे हैं, उन्हें भी राशन नहीं दिया जा रहा है. वह कहते हैं, “नए आवेदन करने की प्रक्रिया बहुत जटिल है, आवेदन देने के बाद भी कई-कई महीने आवेदन पर कोई सुनवाई नहीं होती है. सिर्फ झारखंड में ही 7 लाख राशन कार्ड सरकारी फाइलों में दबी हुई हैं,” वह आगे जोड़ते हैं, “आवेदन करने के लिए लोग प्रज्ञा केंद्र पर निर्भर हैं, लॉकडाउन के कारण प्रज्ञा केंद्र तक लोगों को जाने में भी कठिनाई होती है और ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक कम होने के कारण प्रज्ञा केंद्रों पर भीड़ भी बहुत होती है. प्रज्ञा केंद्रों पर आधार के द्वारा पैसे भी निकलने और भेजे जाते हैं. ”
झारखंड में प्रज्ञा केंद्र चलाने वाले महमूद अली भी कुछ ऐसे ही बात दोहराते हैं. वह कहते हैं, “आवेदन देने के बाद 6-6 महीने तक कोई कार्यवाही नहीं होती है, पता करने के लिए लोगों को बार-बार चक्कर लगाना पड़ता है. कभी प्रखंड स्तर के पदाधिकारी के पास आवेदन महीनों तक रुका होता है या तो कभी जिला स्तर के पदाधिकारी के पास.”
अलग-अलग नामों से इ-गवर्नेंस को ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचाने के लिए ऑनलाइन केंद्र खोले गए हैं. झारखंड में इस केंद्र को ‘प्रज्ञा केंद्र’ कहते हैं. इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार प्रज्ञा केंद्रों पर किसी भी काम के लिए अधिकतर लोगों को एक काम के लीए कई-कई बार जाना पड़ता है, इसका मुख्य कारण इंटरनेट का न होना, प्रज्ञा केंद्रों पर अधिक भीड़ होना, प्रज्ञा केंद्र का बंद होना और बायोमेट्रिक का काम न करना है.
आधार कार्ड से उत्पन्न हो रही समस्याएं भी अपवर्जन का कारण बन कर सामने आ रहे हैं. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट, अहमदाबाद में सहायक प्रोफेसर रीतिका खेरा और अनमोल सोमांची 25 अप्रैल को इकनोमिक & पोलिटिकल वीकली में लिखती हैं, “यह (आधार) लोगों को तीन मुख्य तरीकों से बाहर करता है: यदि लोगों के पास आधार नंबर नहीं है, तो कार्ड रद्द करना, अगर वे इसे अपने राशन कार्ड से लिंक करने में विफल रहते हैं, और आधार-आधारित बायोमेट्रिक की विफलता के कारण. अनाज खरीदने के समय प्रमाणीकरण.”
बीबीसी हिंदी के रिपोर्ट के अनुसार अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में राशन के लिए लाइन में लगी एक महिला की मौत हो गयी. वह दो दिनों से राशन की दुकान पर लाइन में लगी थी. अभी पोस्टमॉटर्म की रिपोर्ट नहीं आयी है लेकिन आशंका जताई जा रही है के दिल का दौरा पड़ने के कारण मौत हुई है. वह 1.5 किलोमीटर की दूरी से पैदल चल कर राशन लेने के लिए आती थी.
कोरोना से पहले भूखमरी ले सकती है जान
अम्बेडकर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाली प्रोफेसर दीपा सिन्हा कहती हैं, “आम दिनों में भी राशन कार्ड बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल रही है, ऐसे में नए राशन कार्ड बनवाने के लिए आवेदन करना और कौन राशन कार्ड के लिये योग्य है और कौन नहीं, यह पता करने का समय नहीं है. सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी भी तरह का पहचान पत्र लेकर आने वालो को राशन दे,” वह आगे कहती हैं, “कुछ राज्य जैसे झारखण्ड, छत्तीसगढ़, दिल्ली ने यह किया भी है लेकिन आधार कार्ड को ज़रूरी कर दिया है , ऐसी महामारी के समय में कुछ महीनों के लिए किसी भी पहचान पत्र से राशन देना चाहिए.”
प्रोफेसर सिन्हा कहती हैं, “केंद्र सरकार को चाहिए कि राज्य सरकार राशन उपलब्ध कराये. राशन वैसे ही केंद्र सरकार के गोदामों में खराब हो रहे हैं, जबकी अभी रबी की फसल के बाद और राशन की खरीद-दारी ही करनी है. राज्य सरकारों के पास इतने पैसे नहीं होते की वह खुद से खरीद कर बांटे.”
भारत में भुखमरी और कुपोषण की समस्या हमेशा से गंभीर रही है, और कोरोना जैसी महामारी इसे और गंभीर बना सकती हैं. भारत में 5 वर्ष से काम आयु के बच्चों में 68 प्रतिशत मौत कुपोषण के कारण होती हैं. कोरोना महामारी के कारण स्कूल में मिड डे मील योजना के अंतर्गत मिलने वाले भोजन, और आंगनवाड़ी केन्द्रो पर समेकित बाल विकास सेवाएं योजना के अंतर्गत, गर्भवती महिलाओं, 2 या उससे काम आयु के बच्चों की माँ, और बच्चों को मिलने वाले आहार की सुविधाएँ नदारद हैं. ऐसे में अगर महामारी थोड़ी लम्बी चली तो समस्या और गंभीर हो सकती हैं, हालांकि केरल जैसे राज्य घर तक आहार पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं.
उच्तम न्यायलय के आदेश के बावजूद भी आंगनवाड़ी पर मिलने वाली सुविधाएँ बाधित हैं. न्यूज़18 पर 20 अप्रैल को छपे लेख के अनुसार, लॉकडाउन में 66 प्रतिशत बच्चो को मिडडे मील के अंतर्गत मिलने वाला भोजन नहीं मिला, वहीं मध्य प्रदेश में 49 तो झारखण्ड में 37 फीसदी को.
पब्लिक सोर्स हेल्थ नेटवर्क से जुड़ीं, डॉक्टर वंदना प्रसाद कहती हैं की हमारी स्वास्थ्य सेवाएं ऐसे भी बहुत अच्छी नहीं रहीं है, अगर इस महामारी में भी भोजन उपलब्ध नहीं करवा पायेगी तो समस्या गंभीर हो सकती है. वह कहती हैं, “अगर हमने राशन के साथ-साथ अन्य व्यवस्थाएं ठीक नहीं की तो, कोरोना वायरस से अधिक मौतें अव्यवस्था के कारण हो सकती है. सरकार को राशन में चावल-गेहूं के साथ दाल, सोया बरी और सरसों तेल जैसी चीज़ें ज़रूर देनी चाहिए.”
(नोट: यह लेख डीइऍफ़ कि कोविड-19 सीरीज का हिस्सा है.)