विरासत यानी धरोहर को अगर आसान लहजे में बताना हो तो मैं कहूंगा कि ये एक बेशकीमती और बहुत जल्दी नष्ट न होने वाला ऐसा खजाना है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौगाद के रूप में पहुंचता है। वैसे भी हर शख्स अपने निजी और पारिवारिक जिंदगी में विरासत की अहमीयत को बखूबी जानते हैं। उसके तह में जाने की जरूरत नहीं है। ये अहमियत महत्व कई गुणा और बढ़ जाता है जब हम देश, दुनिया या समाज के परिप्रेक्ष्य में विरासत की बात करते हैं। इन्हीं विरासत में से एक अनमोल विरासत है चंपारण की धरती पर गांधी की अनमोल विरासत, जो सिर्फ भारत में हीं नहीं, देश विदेशों में भी उनके सिद्धांत प्रासंगिक हैं। हथियार की सौदेबाजी को अपनी हर आर्थिक रणनीति में तरजीह देने वाले देश अमेरिका में भी ‘महात्मा गांधी डिस्ट्रिक्ट’ है। लेकिन, भारत में ही बापू के अपने जिले यानी चंपारण के हालात कुछ ठीक नहीं है, जहां से उन्होंने 1917 में सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था।
बापू का एक सपना था कि उनके जाने के बाद ऐतिहासिक धरोहर भितिहरवा आश्रम सरकारी तंत्र की उलझनों के चलते उपेक्षित न रहे। न हीं उसकी चाहरदिवारी धूल-धूसरीत हो। लेकिन, आज इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। देश के कई नेताओं ने इस आश्रम में आकर शपथ ली, वादे किए। लेकिन, धरातल पर इसके नतीजों के नाम पर ढाक के तीन पात। बापू के नाम पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वालों को इसकी जरा भी परवाह नही है कि जिस महात्मा के नाम पर सरकार ने कई महत्वाकांक्षी योजनाओं की शुरूआत वो भी उनकी धरती का उद्धार नहीं कर पाया है। वहां के लोगों की जिंदगी देखकर मानों लगता है कि उन्हें अब किसी पर भरोसा नहीं है।गरीबी का आलम यह है कि गांव के लोग किसी तरह दो जून की रोटी जुगाड़ कर घर चलाते हैं। वैसे तो 1959 में पंडित नेहरू ने भी वादा किया था कि भितिहरवा को पांचवे मेट्रो सिटी के रूप में विकसित करेंगे, लेकिन सिटी का सपना तो दूर आज गांवों के लोगों को घर चलाना मुश्किल है। हुआ कुछ नहीं। कितने राजनेताओं ने भितिहरवा गांधी आश्रम में जाकर इस ऐतिहासिक स्थल को विकसित करने की शपथ ली और सत्ता के शिखर तक पहुंच गए। लेकिन, शिखर पर पहुंचते ही उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जिसका नतीजा आज हमारे सामने है। आज इस गांव में उच्च शिक्षा के लिए एक स्कूल तक नहीं है। किसी भी सूचना के लिए लोग दफ्तरों के चक्कर लगाते-लगाते थक हार वो खुद को तकदीर के हवाले कर देते हैं। हालांकि, कमोबेस पूरे जिले का यही हाल है।
ग्रामीण विकास विभाग के आंकड़ों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि जहां 2007 में जिले में 4 लाख 80 हजार 384 बीपीएल परिवार थे, वहीं 2008 में ये संख्या बढ़कर 5 लाख 9 हजार 147 हो गयी थी। हालांकि, 2010 के बाद आंकड़ों का प्रकाशन नहीं हुआ, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि संख्या में इजाफा ही हुआ होगा। वैसे भी ये हालात एक दिन में उत्पन्न नहीं हुए। साल दर साल सरकारी बेरुखी और सदियों पुरानी नीति का ही नतीजा है, जहां केंद्र की सभी योजनाएं प्रखंड स्तर तक पहुंचते पहुंचते फाइलों में दम तोड़ देती हैं। इसका एक मात्र उपाय है कि ग्रामीणों के लिए केंद्र और राज्य सरकार की योजनाओं को जन-जन तक पहुंचना, ताकि वो उसका लाभ खुद उठा सकें।
हर हफ्ते देश के किसी न किसी कोने से ग्रामीणों के पलायन और खुदकुशी की खबर सुनने को मिलती है। कभी किसी ने गौर किया है कि गांवों के देश में आखिर ऐसे क्यों होता है? शायद नहीं।
जब शहरों की तरह गांव को आधुनिक सुविधा से जोड़ा जाएगा तो वह देश के विकास में ज्यादा योगदान देने में सक्षम होंगे। अगर गांव को 24 घंटे बिजली, इंटरनेट कनेक्शन, स्कूली पढ़ाई मिलेगी तो हो सकता है कि गांव में उत्तम शिक्षक के आभाव में हम सैटेलाइट के जरिए, शहर में बैठे ज्यादा काबिल शिक्षक के जरिए गांव के स्कूलों में बच्चों को आधुनिक शिक्षा दे सकते हैं और साथ ही मजदूरों, किसानों को सराकरी योजनाओं और नई कृषि तकनीक के बारे में जागरूक कर सकते हैं। अगर गांव के नौजवान को रोजगार मिल जाए तो वह मां-बाप को छोड़कर परदेश क्यों जाएंगे और साथ ही एक गरीब किसान या मजदूर बदहाली की वजह से खुदकुशी करने को मजबूर नहीं होगा।
वैसे भी गांधी जी ने अपने सपनों के भारत में जिस दृष्टि की कल्पना की थी उसमें व्यापकता थी। ग्रामीण विकास के लिए जिन बुनियादी चीजों को वो जरूरी समझते थे, उनमें पंचायतराज, महिलाओं की शिक्षा और पूरे गांवों का विकास अहम था। इसी अधूरे सपने को पूरा करने के मकसद से यूरोपियन यूनियन ने डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन से हाथ मिलाया है। इसके तहत पश्चिमी चंपारण जिले के पांच प्रखंड को चुना गया है जहां हर प्रखंड के पांच पंचायतों में जन-जन तक सूचना सेवा प्रदान की जाएगी। हर प्रखंड में सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र की मदद से समाज के हर तबके को सूचना और तकनीक से जोड़ने कोशिश होगी, जिससे न केवल ग्रामीणों के लिए तरक्की के लिए द्वार खुलेंगे बल्कि पूरा गांव सूचना और तकनीक से लैस हो सकता है। और जिसके बाद हर ग्रामीण अपनी तरक्की की राह खुद तलाश सकता है।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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