यह लेख पहले हिंदुस्तान अखबार में छपा था|
निजता कोई गोपनीयता बरतने का तरीका नहीं है। इसके उलट इसे ‘अकेले रहने और दूसरे लोगों द्वारा ताड़ने या परेशान न किए जाने की अवस्था’ के रूप में परिभाषित किया गया है या फिर इसे ‘आम लोगों की निगाहों से दूर रहने की अवस्था’ माना गया है। मगर भारत के सांस्कृतिक व व्यावहारिक संदर्भों में निजता के मायने क्या हैं? जवाब है, कोई खास नहीं। यह समझने के लिए कि भारत में निजता का कोई खास मतलब नहीं है, हमें देश की जनसांख्यिकी पर गौर करना होगा। ऐतिहासिक रूप से भारत एक ऐसा देश रहा है, जो विविधता को समेटे हुए है। यह विविधता इसकी भौगोलिक तस्वीर, भू-आकृति और राज्यों की सीमाओं तक सिमटी हुई नहीं है, बल्कि यह इसकी संस्कृति, परंपरा, खान-पान की आदत, वेश-भूषा, भाषा, बोली, लिपी, व्यवहार, धर्म और जाति तक में फैली हुई है। कहा जाता है कि ‘हर दो मील पर यहां पानी बदलता है और हर चार मील पर भाषा बदलती है’।
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की कुल 1.3 अरब आबादी में 68.84 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं। जनगणना यह भी बताती है कि कुल ग्रामीण आबादी में 67.77 फीसदी हिस्सा साक्षर है; बाकी सब अनपढ़ और निरक्षर हैं, इसलिए वे देश के मौखिक संवाद वाले समाज का निर्माण करते हैं। शहरी और ग्रामीण, दोनों आबादी को मिला दें, तो आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश की 27.01 फीसदी आबादी निरक्षर है। हालांकि जिन्हें देश ने अनपढ़ या निरक्षर माना है, उनमें से ज्यादातर आर्थिक रूप से कमजोर हैं, ग्रामीण हिस्सों या आदिवासी इलाकों में रह रहे हैं या वे पिछडे़ जिलों से ताल्लुक रखते हैं। भारत के संदर्भ में निजता को समझने के लिए कुछ तथ्यों पर गौर करना उचित होगा। पिछले साल अक्तूबर तक भारत में मोबाइल फोन के ग्राहकों की संख्या 1.1 अरब को पार कर गई थी। देश में मोबाइल की इतनी गहरी पहुंच होने की एक वजह यह भी है कि इससे लोग तुरंत बात कर लेते हैं और इसका इस्तेमाल वाचिक संवाद स्थापित करने में होता है। यहां लोगों को लिखकर बातें करने या इस काम के लिए किसी की मदद की जरूरत नहीं होती। भारत में टीवी और रेडियो की लोकप्रियता की वजह भी यही है।
ब्रॉडकास्ट इंडिया सर्वे के मुताबिक, ग्रामीण भारत में कम आमदनी के बावजूद 17 फीसदी से अधिक घरों में टीवी है, जबकि एजेड रिसर्च का अध्ययन बताता है कि एफएम सुनने वाले लोगों में 76 फीसदी श्रोता इसके लिए मोबाइल फोन इस्तेमाल करते हैैं। जहां बातचीत व सूचनाओं का प्रसार अमूमन संचार के मौखिक तरीकों से होता हो, वहां सूचना की सुरक्षा का विचार या निजता की गुजाइंश बचती ही काफी कम है। ध्यान यह भी रखना चाहिए कि ज्ञान की कई बातों को भले ही देश के स्कॉलर, रिसर्चर और लेखकों ने ऑनलाइन या ऑफलाइन दस्तावेजों पर उकेर दिया है, बावजूद इसके अब भी काफी कुछ का दस्तावेजीकरण या उनको खंगाला जाना बाकी है, क्योंकि जिनके पास यह ज्ञान है, वे निरक्षर हैं और पारंपरिक तरीकों से उसे कागजों पर उतारना उन्हें नहीं आता। सांस्कृतिक तौर पर भारत एक ऐसा देश है, जहां कई जानकारी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक रूप में पहुंचती रही है। इस सच का दायरा हम स्वास्थ्य, चिकित्सा, वास्तुकला, संस्कृति, शिल्प, कला, लोक कथा, लोक संगीत, भाषा आदि में स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं।
साफ है कि भारत ने न संचार को और न ही किसी सूचना को ‘निजी’ समझा है। यहां व्यक्तिगत जीवन की समझ भी काफी कम है। किसी के भी जीवन का लगभग हर हिस्सा उसके परिवार, समुदाय, गांव या समाज के लिए खुली किताब की तरह होता है। यहां व्यक्तिगत इच्छाओं व स्वामित्व-अधिकार पर समाजों की प्रथाओं और जारी किए जाने वाले फरमानों की बंदिशें भी होती हैं। मसलन, यहां किसी लड़की के पास उसका व्यक्तिगत मोबाइल फोन तो हो सकता है, पर उसका इस्तेमाल वह कैसे करेगी, यह तय करने का अधिकार उसके परिवार या समाज को होता है। इसके अलावा, भारतीयों में दूसरों के जीवन में दखल देने की भी आदत होती है, और विडंबना देखिए कि हम दूसरे की निजी व व्यक्तिगत जानकारी हासिल करने की अपनी इस मंशा को ‘दखल’ या ‘निजता का हनन’ नहीं मानते। यह दखल यदि आपको पर्याप्त नहीं लगे, तो अपने यहां की शादी देख लीजिए। देश में अब भी ‘अरैन्ज्ड मैरिज’ यानी माता-पिता की रजामंदी से शादी करना आम है, जो पश्चिम के मिजाज से बिल्कुल अलग व्यवस्था मानी जाती है। मगर हमारे समाज के लोग यह जानने को हमेशा उत्सुक रहते हैं कि विवाह में कितना खर्च किया गया, नवविवाहित जोड़ा बच्चे की योजना कब बना रहा है? अगर बच्चे की नहीं सोच रहा, तो क्यों? यहां बच्चे को यह नहीं सिखाया जाता कि उन्हें बेडरूम के दरवाजे बंद रखने चाहिए; यहां तक कि जब वे सोने जाते हैं, तब भी नहीं। आज भी ग्रामीण और शहरी भारत के कई घरों में दरवाजे को बंद करना- जबकि आप कपड़े न बदल रहे हों- कुछ छिपाने का काम माना जाता है, आपकी निजता नहीं।
लोगों से जब यह पूछा जाता है कि क्या वे अपनी निजता का संरक्षण चाहेंगे, यहां तक कि अपने मोबाइल फोन के डाटा की निजता चाहेंगे, तो वे पलटकर अमूमन यही जवाब देते हैं कि ‘हमारे पास छिपाने को आखिर है क्या?’ शहरी जीवन में भी यह आम है कि ग्राहक जोर-जोर से अपने डेबिट कार्ड का पिन वेटर को बताते हैं। दिलचस्प है कि कई भारतीय इसे सही मानते हैं। वे कहते हैं कि उनके बैंक खाते में पैसे ही कितने होते हैं? यानी, यहां वे निजता को लग्जरी समझ बैठने की भूल कर बैठते हैं और सुरक्षा को पैसे से जोड़ देते हैं। सच यही है कि हमारा समाज डिजिटल क्रांति और निजता के अधिकार के दोराहे पर खड़ा है। जहां देश डिजिटल व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, वहीं भारतीय जनजीवन में रची-बसी संस्कृति निजता को एक ऐसे अधिकार के रूप में लागू करने और समझने की राह में चुनौतियां पैदा कर रही है, जिसे हमारे जीवन व स्वतंत्रता का स्वाभाविक हिस्सा होना चाहिए। भारतीयों को यह समझने की जरूरत है कि निजता वह नहीं है, जो आप दूसरों से छिपाना चाहते हैं, बल्कि वह है, जिसे आप मानते हैं कि किसी दूसरे को देखने की जरूरत नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)