सोशल मीडिया के नियमों में किये जा रहे बदलावों में अस्पष्टता के कारण अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर निजता तक तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं.

आसिफ इक़बाल

इंटरनेट ने समाज को अलग-अलग ढंग से बदला है. इंटरनेट ने नए-नए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को जन्म दिया. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने समाज के सबसे निचले तबके तक को एक आवाज़ दी, एक पहचान दी. सामाजिक परिवर्तन में यह एक अहम भूमिका निभा रहा है. सोशल मीडिया से शुरू हुए मीटू आंदोलन ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया. अलग क्षेत्रों की महिलाओं ने अपने साथ होने वाली घटनाओं के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपनी आवाज़ बुलंद की. लेकिन इस माध्यम का दुरुपयोग भी किया जा रहा है. दुष्प्रचार से लेकर तमाम तरह की अफ़वाहों को इन प्लैफॉर्म्स पर फैलाया जा रहा है. कई दफा ऐसी अफ़वाहों के कारण हिंसा भी हुई.

देश के अलग-अलग क्षेत्रों में भीड़ के द्वारा हो रही हत्याएँ रुकने का नाम नहीं ले रही हैं. कभी बच्चा चोरी तो कभी माँस खाने या ले जाने के शक में हत्याएँ की जा रही हैं. इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार, 2010 से 2019 के बीच में लिंचिंग की 94 घटनाएँ हुई थी, जिस में 35 लोग मारे गए और 224 व्यक्ति घायल हुए. ऐसी घटनाओं में, 2014 के बाद से तेजी से वृद्धि हुई है. लिंचिंग की सब से अधिक 44 घटना 2017 में दर्ज की गयी थी. सरकार पर ऐसी हिंसा को रोकने का लगातार दबाव बनाया जा रहा था.

सरकार ने इस पूरी समस्या को लेकर फेक न्यूज़ और सोशल मीडिया को ज़िम्मेदार ठहरा कर सूचना एवं तकनीक अधिनियम, 2000  में इंटरमीडीआरी जैसे, फेसबुक, व्हाट्सप्प, ट्विटर, इंस्टाग्राम इत्यादि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, के दिशा-निर्देशों में बदलाव 2018 में प्रस्तावित किया था. प्रस्तावित दिशा-निर्देशों में मुख्य रूप से, सन्देश के असली संरचनाकार तक पहुँचने और सोशल मीडिया को सक्रिय रूप से सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने वाले सन्देश और फेक न्यूज़ को अपने प्लेटफॉर्म से हटाने जैसी बात शामिल है.

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

रोहिंग्या और भारत में हुई घटनाओं के बाद व्हाट्सप्प ने अपने प्लेटफॉर्म पर दुष्प्रचार रोकने के लिए सन्देश को साझा करने की संख्या को सीमित कर दिया है. और किसी भी सन्देश के फारवर्ड किये जाने पर व्हाट्सप्प उस सन्देश पर फारवर्ड लिख देता है.

सन्देश के असली संरचनाकार तक पहुँचने के लिए एन्क्रिप्शन खत्म किये बिना संभव कैसे होगा यह एक बड़ा सवाल है. अगर एन्क्रिप्शन खत्म किया जाता है तो लाखों लोगों की निजता खत्म हो सकती है. एन्क्रिप्शन दरअसल ऐसी तकनीक है जिससे आपकी ऑनलाइन निजता बनी रहती है. ख़ास कर व्हाट्सप्प जैसे प्लेटफॉर्म पर जो भारत में खासे लोकप्रिय हैं. सिर्फ भारत में व्हाट्सप्प के 200 मिलियन उपयोगकर्ता हैं. व्हाट्सअप में कोई भी सन्देश भेजने और प्राप्त करने वाले को छोड़ कर किसी और को पता नहीं होता की क्या सन्देश है. उसे एक ख़ास प्रकार के कोड से एनक्रिप्ट कर दिया जाता है.

मेग्सेसे सम्मानित और सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के सदस्य संदीप पांडे कहते हैं कि हाल में सरकार के द्वारा की जा रही कार्यवाही नागरिकों की स्वतंत्रता दयनीय स्थिति को दर्शाता है. जिस प्रकार से CAA-NRC के प्रदर्शनों में प्रभावशाली ढंग से आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया जा रहा है, और उनकी अन्यायपूर्ण गिरफतारियाँ की जा रही है, उससे साबित होता ही की जो लोग सरकार की विचारधारा से असहमति रखते हैं उन पर ऐसे बदलावों के बाद खतरा और अधिक हो जायेगा. वह कहते हैं, “ऑनलाइन होने वाली बात को सुरक्षित रखना महत्वपूर्ण है. सोशल मीडिया पहले ही प्रोटोकॉल और सभी प्रक्रियाओं का पालन करते हैं. फेक न्यूज़ जैसी समस्याओं से निपटने के लिए विभिन्न हितधारकों से बात-चीत करके हल निकालने का प्रयास किया जाना चाहिए.”

सरकार इन बदलावों को ऐसे प्रस्तुत कर रही की इस के कारण इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को फेक न्यूज़ और दुष्प्रचार जैसी समस्याओं से सुरक्षित रखने के लिए किया जा रहा है. हालाँकि, इन बदलावों की कमियों को समझना भी आसान है. सरकार ऐसे बदलाव लाकर हर तरह के पोस्ट और संदेशों पर सक्रिय रूप से निगरानी रखेगी.

कंटेंट मॉडरेशन के सवाल पर दिल्ली में लेबर कोर्ट में अधिवक्ता और मज़दूरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता सूर्य प्रकाश कहते हैं की यह बहुत गंभीर विषय है. यह कौन परिभाषित करेगा की कौन सन्देश ठीक है, कौन नहीं। किया फेक न्यूज़ है और किया सच. वह कहते हैं, “सरकार इस का उपयोग ठीक ढंग से करेगी, मुझे इसका विश्वास कम है. इसके उलट सरकार इसका उपयोग इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने के लिए कर सकती है.”

(फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स)

सोशल मीडिया सक्रिय रूप से ऐसे सन्देश या पोस्ट को अपने प्लेटफॉर्म से हटाने के लिए आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस का उपयोग करेगी। आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस जैसी तकनीक को लेकर भी प्रश्न उठते रहे हैं. ऐसी तकनीक भी मनुष्यों के पूर्वाग्रहों से अछूती नहीं हैं. गांव कनेक्शन के पत्रकार रणविजय सिंह भी इस तरफ इशारा करते हैं. वह कहते हैं कि फेक न्यूज़ जटिल समस्या है. और इससे लड़ने के लिए कोई मज़बूत प्रावधान होना चाहिए. लेकिन ऐसे बदलाव पत्रकारों के लिए मुसीबत खड़े कर सकते हैं. वह कहते हैं, “सरकार तो चाहेगी ही की सिर्फ उसके अनुरूप ही बातें हो.”

सरकार ने सेफ हारबर की नीति में बदलाव प्रस्तावित किये हैं. इस में कहा गया है की अगर इंटरमीडियरी सक्रिय रूप से आपत्तिजनक संदेश या पोस्ट को अपने प्लैफॉर्म्स से नहीं हटाएंगी तो उनको कानूनी रूप से मिलने वाली सुरक्षा नहीं दी जाएगी। इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं कि अभी तक अगर आपने किसी राजनेता या किसी व्यक्ति के खिलाफ कोई आपत्तिजनक सन्देश भेजा या पोस्ट लिखा तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को कोर्ट के सन्देश के बाद ऐसे संदेश या पोस्ट को हटाएगी लेकिन आपके द्वारा लिखे गए पोस्ट या भेजे गए सन्देश के लिए सोशल मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं होगी। लेकिन नयी नीति लके अनुसार अगर प्लेटफॉर्म ने सक्रिय रूप से ऐसे सन्देश या पोस्ट को नहीं रोका तो इससे उन पर कानूनी रूप से कार्यवाही की जा सकती है.

हालाँकि, 2015 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के श्रेया सिंघल निर्णय देश में इंटरमीडियरी दायित्व कानून के संबंध में एक महत्पूर्ण फैसला सुनाया था. अदालत ने आदेश दिया था कि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से ऑनलाइन सामग्री केवल अदालत के आदेश के माध्यम से या सरकार के अनुरोध पर हटाई जा सकती है. यह फैसला अभिव्यक्ति की आज़ादी को सुरक्षित रखने के लिए लिया गया था.

कोर्ट ने इस फैसले में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66-ए का उपयोग पर रोक लगा दी थी.  66-ए का उपयोग करके सरकार, ऑनलाइन अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने का प्रयास करती रही है. गिरफ्तारियां भी की गयी हैं. कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि यह अधिनियम ‘अस्पष्ट” और अभिव्यक्ति कि आज़ादी पर मनमाने ढंग से हमला करता है.

(पांच भागों के लेख में यह पहला भाग है)