मैं अपने सफर की शुरुआत एक ट्वीट के साथ करता हूं और अपनी ज्यादातर बैठकों, विचार-विमर्शो और यात्राओं के बारे में ट्विटर पर जरूर लिखता हूं। मेरा हर दौरा फेसबुक पर एक संक्षिप्त सफरनामे और तस्वीरों को अपलोड करने के साथ ही खत्म होता है। महज एक सामान्य ई-मेल के जरिये आप फेसबुक से जुड़ जाते हैं और ये सभी कवायदें आपके लिए सरल हो जाती हैं। मेरा संदेश काफी आसानी से चंद पलों में हजारों संबंधित व्यक्तियों तक पहुंच जाता है और फिर आगे वे उस संदेश को अपने फेसबुक के अनगिनत साथियों तक पहुंचा देते हैं। आज यह ताकत हर उस बंदे के पास है, जिसकी हद में इंटरनेट है। दुनिया भर में करीब दो अरब लोगों की पहुंच फिलहाल इस तक हो चुकी है। समकालीन इतिहास पर इसका बेमिसाल प्रभाव देखने को मिल रहा है और उसे कुछ गंभीर चुनौतियों का भी मुकाबला करना पड़ा है।
सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा सही मायने में तब हुआ, जब बहरीन, मिस्र, लीबिया, सीरिया और ट्यूनीशिया जैसे मुल्कों की हुकूमतें इसकी आंधी में या तो जमींदोज हो गईं या फिर उनके वजूद के लिए संकट खड़ा हो गया। ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट आंदोलन ने शक्तिशाली अमेरिका को हिला दिया, तो वहीं हिन्दुस्तान में अन्ना आंदोलन ने मुल्क के हर खित्ते के हजारों लोगों को आंदोलित कर दिया और सरकार को कुछ कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि अब आम नागरिक भी खबरें ब्रेक करने लगा है, और वह भी बिल्कुल उसी वक्त, जब कोई घटना अंजाम लेती है। खास बात यह है कि अब पारंपरिक मीडिया भी विभिन्न विवादों, मुद्दों और बहसों पर नागरिकों की नब्ज टटोलने के लिए लगातार ऑनलाइन नेटवर्क की मदद ले रहा है। कुदरती आपदा जैसी घटनाओं की रिपोर्टिग के लिए तो मुख्यधारा का मीडिया अब प्राय: सामान्य नागरिकों की आंखों देखी रिपोर्टिग पर निर्भर करता है। हालांकि सोशल मीडिया के इस्तेमाल के जरिये पैदा किए जाने वाले विवादों के साथ किस तरह का ट्रीटमेंट किया जाए, इसके लिए मुख्यधारा का मीडिया वैकल्पिक रास्ता तलाशने में जुट गया है। विकीलीक्स के खुलासे की तरह एक बार जब कोई संवेदनशील सूचना इंटरनेट पर सार्वजनिक हो जाती है, तो मुख्यधारा के मीडिया को भी उसे उठाना पड़ता है, क्योंकि वह लंबे वक्त तक उसे नजरअंदाज नहीं कर सकता।
दरअसल, जिन आंदोलनों का उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उन सभी में बड़ी तादाद में नौजवान तबका शामिल हुआ है। उत्साही युवाओं द्वारा सोशल मीडिया का इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है। विभिन्न मसलों, जैसे शिक्षा के गिरते स्तर, रोजगार की कमी, स्थानीय प्रशासन की काहिली, सरकारी नीतियों से असहमति और न्याय-व्यवस्था की गंभीर खामियों पर अपनी चिंताएं जाहिर करने के लिए वे सोशल मीडिया वेबसाइटों पर टिप्पणियां कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति ने दुनिया भर के अनगिनत नागरिक समूहों को प्रेरित किया है, जो अपने-अपने क्षेत्र में सामाजिक व राजनीतिक एजेंडा तय करने की बात करते हैं।
‘पुल-ए-जवां’ इसका एक दिलचस्प उदाहरण है। इसने पहली बार भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के नौजवानों को एक धागे में पिरोने का काम शुरू किया है। वैसे तो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को जोड़ने वाले कई फोरम हैं, लेकिन संभवत: उनमें से कोई भी मंच इन तीनों देशों को नहीं जोड़ता और यही वजह है कि ‘पुल-ए-जवां’ इन तीनों देशों में आपसी अविश्वास और विवादों से निपटने का ताकतवर फोरम बना है। साइबर संसार में इन तीनों मुल्कों से मुतल्लिक बहसें जिस तरह नफरत के अल्फाजों से बजबजाती देखी जाती रही हैं, उनमें ‘पुल-ए-जवां’ सचमुच एक खुशनुमा अहसास है। साल 2011 में अफगानिस्तान में आयोजित युवा मीडिया महोत्सव में इसे शुरू करने का विचार पैदा हुआ था। सितंबर में काबुल में इस बाबत कार्यक्रम की शुरुआत हुई, उस वक्त तीनों मुल्कों के 15 सिटीजन जर्नलिस्ट काबुल पहुंचे और वहां वे इंसानी हुकूक के लिए लड़ने वाले तथा अपने देश में अमन व भाईचारे का पैगाम बांटने वाले कई नेताओं से मिले। इस तरह ‘पुल-ए-जवां’ फोरम की शुरुआत हुई। भारत में डिजिटल इंपावरमेंट फाउंडेशन द्वारा इस फोरम को शुरू किया गया है और इसे संचालित किया जा रहा है। इन फोरमों में शिरकत करने वाले नागरिकों की टिप्पणियां बिल्कुल रूह से निकली हुई लगती हैं। और ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों मुल्कों के ये लोग एक-दूसरे पर तोहमत जड़ने की आदत से दुखी हैं।
बहरहाल, इस्लामाबाद में 11 और 12 अप्रैल को ‘पुल-ए-जवां’ का जलसा हुआ था, जिसमें बड़ी तादाद में लोग शामिल हुए और उनकी प्रतिक्रियाएं जोश बढ़ाने वाली थीं। 14 अप्रैल को भारत में इस फोरम की बैठक हुई, जिसमें 100 के करीब सिटीजन जर्नलिस्ट, वरिष्ठ पत्रकार और वैकल्पिक मीडिया के लोगों के साथ-साथ सांस्कृतिक क्षेत्र के दिग्गज शामिल हुए थे। सबका एक ही उद्देश्य था कि भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच अमन और दोस्ती को बढ़ावा दिया जाए। 14 अप्रैल को इंटरनेट पर ‘पुल-ए-जवां’ की यह कवायद छा गई थी, क्योंकि उस पूरे कार्यक्रम की सीधी रिपोर्टिग हो रही थी। भारत में उस दिन ट्विटर पर यह चौथा सर्वाधिक चर्चित मसला था। हमने हाल ही में सिटीजन मीडिया नेटवर्क की शुरुआत की है, ताकि ग्रामीण समुदायों से जुड़े लोग इस नए मीडिया के जरिये अपनी भावनाएं जाहिर कर सकें और डिजिटल पत्रकारिता के तौर-तरीके और तकनीक को सीख सकें। इतना ही नहीं, हमने इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) के साथ मिलकर सिटीजन जर्नलिज्म और सिटीजन मीडिया लीडर्स का ऑनलाइन सर्टिफिकेट कोर्स भी शुरू किया है।
हालांकि सिटीजन मीडिया, वैकल्पिक मीडिया या सोशल मीडिया सही अर्थो में पत्रकारिता नहीं है, फिर भी विभिन्न डिजिटल माध्यमों, जैसे मोबाइल फोन, कम्युनिटी रेडियो, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग्स, पॉडकास्ट्स, यू-ट्यूब आदि ने सूचना के महत्व और उसके लोकतंत्र को मजबूत किया है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अरुणा रॉय ने हाल ही में इंटरनेट अधिकारों पर आयोजित एक बहस के दौरान कहा था कि ‘इंटरनेट एक जटिल, मगर बेहद उपयोगी माध्यम है, जो पारंपरिक मीडिया के सनसनी फैलाने व पीत पत्रकारिता की प्रवृत्ति को दुरुस्त करने की क्षमता रखता है।’
मेरी निगाह में मीडिया और पत्रकारिता के आगे पिछले दो दशक में जो सबसे गंभीर चुनौती रही है, वह यही कि अब हम श्रोता, पाठक या दर्शक नहीं रहे। आज का आम नागरिक एक लेखक, पत्रकार और प्रस्तोता की तरह ही ताकतवर हो गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)