क्या कभी आपने सोचा है कि जो हम बार-बार विकास औऱ तकनीक की बात करते हैं, उसकी गति में रह रहकर ब्रेक क्यों लग जाता है? इसका एक मात्र कारण है विकास के लिए बुनियादी जरूरत में कमी का होना। और वो बुनियादी जरूरत है बिजली। कोई देश कैसे वैश्विक ताक़त बनने के ख़्वाब देख सकता है, जिसकी आधी से ज्यादा आबादी बिजली की बड़ी किल्लत से दो-चार हो।
वैसे तो दक्षिण एशिया में ऊर्जा की विशाल क्षमता होने बात कही जाती रही है, लेकिन इसी क्षेत्र के देशों में सबसे ज्यादा लोग बिजली संकट से परेशान हैं। राजधानी दिल्ली ही नहीं भारत के कई राज्यों में बिजली की भारी किल्लत है। बिजली संकट इतना गंभीर है कि गाँव तो क्या शहरों में भी भारी कटौती हो रही है या फिर किसी न किसी तकनीकी ख़राबी से अकसर सप्लाई बंद हो जाती है। हालत ये है कि शहरों में गगनचुंबी मॉल्स भी अपनी बिजली का इंतज़ाम करने के लिए जेनरेटर पर निर्भर रहते हैं। दिल्ली से सटे गुड़गांव जैसा साइबर सिटी हो या बैंगलोर जैसी सिलिकन वैली, सभी जगहों पर बिजली की समस्या आम है।
अगर ग्रामीण इलाक़ों की बात करें तो वहां हालत और भी बदतर है। कई राज्यों की स्थिति यह है कि अभी गाँवों तक बिजली ही नहीं पहुँची है। जहाँ बिजली पहुँच भी गई है वहाँ कभी कुछ घंटों के लिए ही बिजली आती है और कहीं कभी-कभी आती है। इसका एक उदहारण बिहार में मुजफ्फरपुर का रतनौली गांव है, जहां बिजली के खंभे तो जरूर लगे हैं लेकिन वहां बिजली की गारंटी कोई नहीं दे सकता। रतनौली जैसे देश में कई और भी गांव हैं जहां बिजली तो दूर उसके खंभे तक नहीं मिलेंगे।
बिजली की ऐसी विकट समस्या के रहते हुए क्या भारत वास्तव में महाशक्ति बन सकता है? सच कहें तो बिल्कुल नहीं। 21 सदी में बिजली के बिना विकास नामुमकिन है। चलिए थोड़ी देर के लिए देश की भौगोलिक संरचना को जिम्मेदार मानते हुए कह दें कि अलग-अलग भौगोलिक स्थिति होने से देश के कई इलाकों तक बिजली नहीं पहुंच पाया है। लेकिन, सूर्य की रोशनी किसी भी संरचना की मोहताज नहीं होती। मालूम हो कि दुनिया में परंपरागत उर्जा स्रोत न केवल सीमित है, बल्कि हमें कई उर्जा उत्पादों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। भारत में फिलहाल 170,000 मेगावॉट से ज्यादा बिजली की उत्पादन क्षमता है और बिजली की वार्षिक मांग चार फीसदी की दर से बढ़ रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक व्यस्त घंटों में बिजली की 10 फीसदी की कमी रहती है।
उधर विशेषज्ञों का मानना है कि ऊर्जा तंत्र में इतनी भारी गड़बड़ी का मूल कारण बिजली की आपूर्ति में कमी है। उनके मुताबिक दक्षिण एशियाई देश बिजली की मांग और आपूर्ति के अंतर को अपने विशाल ऊर्जा संसाधनों और दूसरे देशों के साथ बिजली का लेन-देन कर काफी हद तक कम कर सकते हैं। लेकिन ये कोई स्थायी निवारण नहीं हो सकता।
अगर देश से अज्ञानता, असमानता और बेरोजगारी को मिटाना है तो गाँव और शहर में 24 घंटे बिजली की व्यवस्था करनी होगी, जिसके लिए सौर उर्जा ही एक मात्र स्थायी विकल्प है। सूर्य की रोशनी का इस्तेमाल कर सौर उर्जा पैदा कर हमें आत्मनिर्भर बनना ही पड़ेगा। सौर ऊर्जा में शुरू में लागत भले ज़्यादा हो, लेकिन चूँकि इसको चलाने का ख़र्च नहीं है, इसलिए दीर्घकाल में यह लागत ज़्यादा नहीं होगी।
पिछले दिनों ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत को वैकल्पिक उर्जा प्रणालियों में निजी और सरकारी स्तर पर 2050 तक 6,10,000 करोड़ रूपये सालाना निवेश करने की जरूरत बताई गई थी। इस निवेश से भारत को जीवाश्म ईंधन पर खर्च किये जानेवाला सालाना एक ट्रिलियन रूपये की बचत होगी और इस नये निवेश के कारण अगले कुछ सालों में ही 20 तक भारत रोजगार के 24 लाख नये अवसर भी पैदा कर सकेगा। अगर भारत सरकार रिपोर्ट के आधार पर इन उपायों को लागू करती है तो 2050 तक भारत की कुल उर्जा जरूरतों का 92 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त किये जाएंगे। और सबसे चौंकानेवाली बात यह होगी उस वक्त भी हम आज से भी सस्ती बिजली प्राप्त कर सकेंगे। एक रिपोर्ट के मुताबिक प्राकृतिक स्रोत से प्राप्त बिजली की कीमत 2050 में 3.70 रूपये प्रति यूनिट होगी।
ऐसे में अगर भारत सौर ऊर्जा को सामान्य बिजली में बदलने का प्रयोग कामयाब हो गया तो गाँवों और कस्बों में न केवल कंप्यूटर शिक्षा, बल्कि दूसरे अनेक क्षेत्रों में भी रोज़गार पनप सकते हैं। सौर उर्जा के माध्यम से जहां किसान खेतों की सिचाई सोलर पंप से कर सकेंगे वहीं अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा ग्रामीण भारत का बड़ा हिस्सा भी रोशनी से जगमगा उठेगा।
इसके लिए जरूरत इस बात कि है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सौर उर्जा और उससे जुड़े साजोसामान का चलन बढाया जाए। और फिर वो दिन दूर नहीं होगा जब गांवों में साइकिल मरम्मत की दुकानों की तरह उन इलाकों में भी सौर उर्जा से चलने वाले छोटे-मोटे उपकरणों का निर्माण और मरम्मत की दुकानें भी देखे जा सकते हैं, जो स्थानीय रोजगार भी उपलब्ध कराएगा।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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