ओढ़िशा की राजधानी भुवनेश्वर से करीब 144 किलोमीटर दूर भद्रक नाम का एक ऐसा जिला है, जो मुगल तमाशा के लिए मशहूर है। इस अनोखी कला को हिन्दू एवं मुसलमान संप्रदाय के कलाकार इसे खास अंदाज में पेश करते हैं, जो उनकी रोजी रोटी का जरिया भी है। इसी जिले का एक छोटा सा हमनाम शहर भद्रक संप्रदायिक सदभाव राज्य के लिए ही नहीं देश के लिए भी एक मिसाल है। साल 1992-93 को अगर छोड़ दें तो 1947 के बाद कोई ऐसा साल नहीं होगा, जब वहां के लोगों को किसी संप्रदायिक दंगे का शिकार होना पड़ा हो। शायद इसकी बड़ी वजह यह है कि छोटे से शहर में हिंदूओं और मुसलमानों की आबादी में ज्यादा अंतर नहीं है। भद्रक शहर में जहां मुसलमानों की आबादी 51 फीसदी हैं तो वहीं 49 फीसदी हिंदू हैं। साथ ही वहां कुछ ऐसे धार्मिक और स्वनिर्मित किस्म के संगठनों की कोशिश का नतीजा भी है जो आजादी से लेकर आजतक मुसलमानों और हिंदूओं की नुमांइदगी करते हुए संप्रदायिक सदभाव बनाए रखने के लिए हमेशा प्रयासरत रहे हैं। जिसके चलते भद्रक का हर निवासी बेखौफ अपनी रोजी-रोटी और तरक्की के लिए मशगूल नजर आता है। लेकिन, आबादी के लिहाज से संप्रदायिक सदभाव के बावजूद हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
इसका साफ उदाहरण भद्रक शहर की गलियों में साफ नजर आता है। जहां सड़कों के किनारे ग्राहक के इंतजार में दर्जी के रूप में सिलाई मशीन के साथ बैठे कई अल्पसंख्यक समुदाय के लोग मिल जाएंगे, जो तपती गर्मी और बारिश में छतरी के नीचे पूरा दिन काट देते हैं। वो कोई और नहीं बल्कि इसी भद्रक इलाके के मुस्लिम समुदाय के लोग हैं जो आर्थिक तंगी की वजह से हर रोज कड़ी संघर्ष करने को मजबूर है।
इलाके में एक सर्वे में हमने पाया कि मुस्लिम समुदाय के ज्यादार लोग या तो कृषि पर निर्भर हैं या फिर सिलाई या छोटा बिजनेस कर अपना जीवनयापन करते हैं। अगर एक-दो परिवार को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि इस समुदाय के लोगों के पास इसके अलावा कोई दूसरा रोजगार नहीं है। इसकी मुख्य वजह स्थानीय लोगों में शिक्षा की कमी। वैसे तो भद्रक शहर में साक्षरता की दर 80 फीसदी है, लेकिन मुस्लिम समुदाय में ये दर काफी कम करीब 40 फीसदी है। अगर, कोई मुसलमान परिवार शिक्षित है तो उसे कंप्यूटर या तकनीकी ज्ञान नहीं है। 21 सदी के इस तकनीक युग में किसी वर्ग को कंप्यूटर की जानकारी न होना, उसकी धुंधले भविष्य को दर्शाने के लिए काफी है।
इसी कड़वी सच्चाई और हालात को और करीब से समझने के लिए हमने इस्राइल मियां नाम के एक ऐसे शख्स से बात की, जो करीब 10 साल से सड़कों के किनारे सिलाई कर अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। एक सवाल के जवाब में इस्राइल मियां ने अपनी हालत बयान करते हुए कहा कि वो और उनके परिवार की सभी महिलाएं कई सालों से इस काम को करते आ रहे हैं, क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई काम नही है। ये पूछे जाने पर कि इतनी गर्मी में सड़क के किनारे कैसे काम करते हो, इस्राइल मियां कहते हैं, ‘काम तो काम है, चाहे जिस हालात में करना हो, पेट के लिए करना ही पड़ेगा।’
इस इलाके में इस्राइल मियां जैसे ज्यादातर मुसलमान ऐसी ही गरीबी की मार झेल रहे हैं, जिसकी सिर्फ और सिर्फ एक वजह है अशिक्षा और सूचना का आभाव। यूं तो शिक्षा किसी भी समुदाय के विकास के लिए अहम है। लेकिन, दूर्भाग्यवश आज मुसलमानों के पिछड़ेपन की असल वजह भी शिक्षा ही है। मुसलमानों के शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक हालात को सुधारने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों के तमाम कोशिशें भी मुसलमानों हालात सुधारने में अब तक ना काफ़ी साबित हुए हैं। स्थानीय संगठन और संस्थाएं भी भारत के मुसलमानों की कितनी हमदर्द हैं, इसका अंदाजा उपर बयान किए गए हकीकत से लगाया जा सकता है।
खुद को मुसलमानों की खरख्वाह बताने वाली मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी 50 वर्षों में चाहे शादी के लिए एक मॉडल निकाहनामा भी तैयार न कर सका हो लेकिन वो हर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी राय से जरूर नवाजता है। यहीं नहीं, पर्सनल लॉ बोर्ड तमाम बच्चों के लिए शिक्षा को बुनियादी अधिकार में शामिल करने जैसे अहम सरकारी कदमों का भी धर्म के नाम पर विरोध कर चुका है।
इसी कमी को पूरा करने के मकसद से डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन ने स्थानीय संस्था दिशा के सहयोग से भद्रक में एक ऐसे ‘सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र’ की स्थापना की है जहां न सिर्फ मुसलमानों को नई तकनीकी शिक्षा दी जाएगी, बल्कि समाज के गरीब और अशिक्षित युवाओं, महिलाओं को हर तरह सूचनाएं दी जा सकेगी ताकि वो अपना भविष्य तलाश सकें।
इस ‘सामुदायिक सूचना संसाधन केंद्र’ यानी ‘सीआईआरसी’ में मासिक कंप्यूटर एवं इंटरनेट कोर्स के अलावा कई ऐसी वोकेशनल ट्रेनिंग की भी सुविधा है , जिसे प्राप्त कर इलाके की महिलाएं औऱ पुरुष एक नया रोजगार पा सकेंगे।
साथ ही सीआईआरसी कई ऐसी डिजिटल सर्विसेज यानि प्रिंटिंग, टिकट बुकिंग, स्कैनिंग, स्काइप, फेसबुक जैसी सुविधाओं से भी लैस है जो इलाके को नॉलेज कॉम्यूनिटी में तब्दील करने के साथ-साथ स्थानीय लोगों को दूसरी दुनिया से भी जोड़ सकेगा।
28 मई 2013 को स्थानीय जिला कलेक्टर श्री लक्ष्मी नारायण मिश्रा ने भी सीआईआरसी केंद्र का उद्घाटन के दौरान इसकी अहमियत पर जोर देते हुए कहा कि समाज के पिछड़े वर्ग को मुख्य धारा में जोड़ने के लिए सूचना केंद्र एक अहम रोल अदा कर सकता है।
गौरतलब है कि गांवों या छोटे शहरों के 15 से 30 फीसदी मुसलमान के बच्चे आज भी अपनी पहली पढ़ाई मकतब से शुरू करते हैं, जहां उन्हें किसी प्रकार की तकनीकी शिक्षा नहीं मिलती। सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी ये खुलासा कर चुकी है कि 4 फीसदी मुस्लिम बच्चे आज भी फुलटाइम सिर्फ मदरसों में ही पढ़ते हैं।
ऐसे हालात में हमें बड़ी संजीदगी से मुसलमानों के हालात पर गौर करना होगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में ज्यादातर मुसलमान ग़रीब किसान या छोटे कारोबारी है जो अपने बच्चों को मदरसों में ही पढ़ने भेज सकते हैं। ऐसे में अगर हम पुरानी शिक्षा व्यवस्था को आधुनिक नहीं बनाएँगे, या उन्हें नई तकनीकी शिक्षा से लैस नहीं करेंगे, तब तक वो बाहरी दुनिया से बराबरी नहीं कर सकते और नाहिं वो विकास की मुख्यधारा से कभी जुड़ सकेंगे।
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इन इलाकों में अब ऐसी सुविधा प्रदान की जाए ताकि वहां के गरीब बच्चे आसानी से अपनी जरूरत के मुताबिक सूचना हासिल कर सकें और नई तकनीकी शिक्षा और वोकेशनल ट्रेनिंग से इतना परिपक्व हो जाएं कि वे आसानी से अपनी योग्यता के अनुसार अलग-अलग रोजगार पा सकें। इसके लिए इन इलाकों में सीआईआरसी जैसी कई केंद्रों की जरूरत है जहां इंटरनेट, तकनीकी शिक्षा सुविधा मिल सके, ताकि ज्यादातर गरीब बच्चे, पुरुष, महिलाएं बाहरी दुनिया से बराबरी कर सकें। लेकिन, इसका नतीजा देखने के लिए हमें शायद लंबा इंतजार करना होगा।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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