इस बार मैं एक तस्वीर के सहारे आपको देश के कुछ इलाकों की सच्चाई से रूबरू कराउंगा। आंध्र प्रदेश के एक गांव की तस्वीर, जिसमें समुद्र के किनारे मछली पकड़ने की जाल लिए बैठा मछुआरा, उड़ीसा के मुस्लिम बहुल इलाके में लोगों के बीच बैठे मुल्ला जी और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में सीढी़नुमा खेत में खड़ा एक किसान, जो काफी कुछ बयान करती हैं। इन तीनों तस्वीरों में मौजूद लोगों की भाषा, रहन-सहन, भगौलिक स्थिति और रोजमर्रा की जरूरतें भी जुदा-जुदा हैं। लेकिन, फिर भी इन तीनों तस्वीरों में एक चीज आम है। एक मोबाइल, जिस पर बात करते हुए तीनों एक ऐसी दुनिया में खोए थे, जो उनके आसपास से कहीं दूर जा जुड़ती थी। वो और कुछ नहीं, बल्कि एक नए बनते भारत की तस्वीरें थीं।
पिछले डेढ़ दशक में कैसे भारत में हर हाथ तक मोबाइल पहुंचा और कैसे यह मोबाइल टेलीफोनी का दूसरा सबसे तरक्की करता बाजार बन गया, किसी को पता तक नहीं चला। लेकिन, इस क्रांति ने आम जिंदगी में कुछ खास बदलाव नहीं ला सका। पहले की तरह आज भी गांवों में लोग दो जून की रोटी और काम की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
पिछले दिनों हमने उड़ीसा के भद्रक जिले की बदहाली और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों से बढ़ता पलायन का जिक्र किया था। इस बार मैं आपकों ऐसे जगह से वाकिफ कराउंगा जहां हर घर में आपको चारपाई यानी खाट उल्टी मिलेगी। 454 मछुआरा परिवारों में 1840 लोगों की आबादी वाले विशाखापट्टनम जिले के इस गांव का नाम है मुथयल्लम्मापालम, जहां हर परिवार अपने भगवान से ये आस लगाए बैठा है कि कैसे उनके घर में खुशहाली और तरक्की आए। इसी मन्नत के लिए गांव का हर परिवार मई और जून महीने में हर साल एक त्योहार मनाता हैं जिसमें पांच भगवानों की पूजा होती है।
इस दौरान गांव के हर घर में मौजूद चारपाई यानी खाट को उलटा कर के रखा जाता हैं। वरना मान्यता के मुताबिक, पूजा के दौरान सीधी चारपाई पर बैठने वाले शख्स से भगवान नाराज हो सकते हैं और उसके घर में किसी की मृत्यु हो सकती है। यहीं नहीं, अंधविश्वास और अशिक्षा का आलम ये है कि 21वीं सदी के इस तकनीकी युग में भी यहां भगवान को खुश करने के लिए बलि देने की प्रथा कायम है। एक तरफ जहां आंध्रप्रदेश सरकार लगातार एक दशक से आईटी डेस्टिनेशन बनाने की कोशिश में जुटी है, वहीं उसी राज्य में गरीबी, बदहाली और अंधविश्वास का शिकार एक गांव सरकार से नहीं भगवान से आस लगाए बैठा है।
आलम ये है कि इस गांव के 454 परिवारों में से 453 परिवार गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं। इस गांव की करीब सौ फीसदी आबादी किसी न किसी रूप से मछली के व्यवसाय से जुड़ी है। एक आंकड़े के मुताबिक इस गांव में जहां 421 लोग मछली पकड़ने और 154 महिलाओं समेत 155 लोग मछली बेचने का काम करते हैं, तो वहीं 66 महिलाएं मजदूरी कर अपना गुजारा करती हैं। इसी प्रकार, शिक्षा के क्षेत्र में भी हम पाते हैं कि इस गांव के 197 पुरुष और 155 महिलाएं प्राथमिक शिक्षा, 239 पुरुष एवं 151 महिलाएं उच्च शिक्षा हासिल कर चुकी हैं, लेकिन सिर्फ एक पुरुष को कॉलेज की पढ़ाई नसीब हुई है।
हैरानी की बात ये है कि इस गांव में कोई भी शख्स तकनीकी रूप से शिक्षित नहीं है। जिसके फलस्वरूप, वो टीवी पर भी प्रसारित मौसम के बारे में सरकारी चेतावनी या कोई तकनीकी जानकारी समझने में कठिनाई होती है। वैसे भी कम पढ़े-लिखे मछुआरे टीवी नहीं देखते और अगर देखते भी हैं तो उसकी पूरी बात नहीं समझते, उन्हें स्थानीय तरीक़े से पूरी जानकारी देनी पड़ती है।
इसी वजह से अकसर समुद्र में जानेवाले मछुआरों को मौसम की सही जानकारी नहीं होने से उन्हें हमेशा जोखिम उठाना पड़ता है। इनकी दयनीय हालत के लिए सरकार की नीतियों के साथ-साथ किसी हद तक सूचना की कमी भी जिम्मेदार है। अगर सूचना केंद्र होता तो मौसम की सही जानकारी के साथ-साथ स्थानीय मछुआरों को यह भी पता लग जाता कि ज्यादा मछलियां कहां पकड़ी जा सकती हैं। हालांकि, वर्तमान में तो ऐसी कोई सरकार की नीति या योजना दिखाई नहीं देती, जिससे उनकी हालत सुधर सके।
लेकिन, ऐसे में अगर कभी 21वीं सदी के आधुनिक भारत का इतिहास लिखा जाएगा, तो उसमें 2 अहम पड़ावों का जिक्र जरूर होगा। पहला जब लंबे संघर्ष के बाद भारत आजाद हुआ। दूसरा जब आजाद भारत की सरकारों ने वापस देश को गुलाम और दूसरे देशों पर निर्भर बनाने की नीतियों को अख्तियार करना शुरू किया।
हालांकि, मुथयल्लम्मापालम गांव में सरकारी उपेक्षाओं के बावजूद कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने जरूर मदद का हाथ बढ़ाया है। पिछले साल दिसंबर में डीईएफ और इंटेल ने नेशनल डिजिटल लिटरेसी मिशन नाम से एक अभियान की शुरूआत की। जिसके तहत अबतक गांव के करीब 350 लोगों ने कंप्यूटर की बेसिक ट्रेनिंग दी जा चुकी है। इस अभियान ने तकनीकी जानकारी देने के साथ-साथ युवा वर्ग में काफी उम्मीदें जगाई है। ग्रामीण युवा जो पहले अपनी पुर्वजों की विरासत को आगे बढ़ाते हुए मछुआरा बनना चाहते थे, वो अब कंप्यूटर औऱ इंटरनेट के जरिए काम की तलाश में जुट गए हैं। साथ ही गांव की महिलाएं और छात्राओं ने भी इसे गंभीरता से लिया है ताकि इसके सहारे नौकरी या कोई व्यवसाय शुरू कर सकें और परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने में हाथ बंटा सकें।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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