क्या दुनिया के छोटे मुल्कों में सोशल मीडिया के मंच आम जनता के लिए उनके हक की लड़ाई के हथियार साबित हो सकते हैं? पाकिस्तान की शेर बानो को देखकर कम से कम इस बात के संकेत तो जरूर मिलने लगे हैं। सोशल मीडिया को लेकर 19 वर्षीय शेर बानो ने समाज में चेतना जगाने के लिए फेसबुक, ट्विटर जैसे मंचों को गले लगा लिया है। 19-20 सितंबर को दिल्ली में आयोजित सोशल मीडिया समिट के दौरान शेर बानो से मुझे रूबरू होने का मौका मिला। छोटी सी मुलाकात ने मुझे मलाला युसुफजई की याद ताजा कर दी। हालांकि, इस समिट में दक्षिण एशिया के करीब 7 देशों के कई समाजिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया, जो अलग-अलग तरीके से अपने मिशन के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन सबों की दास्तां भी अपने आप में एक मिसाल है, जिसे मैं अपने लेख के जरिए हर हफ्ते आपसे रूबरू कराऊंगा।
लेकिन, इस बार मैं पहली बार भारत आई पाकिस्तान की 19 वर्षीय ब्लॉगर शेर बानो से आपको रूबरू कराऊंगा, जिसे उसके कॉलेज के साथी उसे मलाला के नाम से भी पुकारते हैं। पेशावर में पख्तून परिवार में पैदा हुई शेर बानो की परवरिश करीब कबायली इलाके के कट्टरपंथी समाज में हुई, जहां औरतों को बाहरी दुनिया से ताल्लुक रखने की इजाजत नहीं है।
दरअसल, पेशावर के आस-पास कबायली इलाके में कट्टरपंथी मुसलमानों की अच्छी खासी आबादी है, जहां फोटोग्राफी, इंटरनेट या फिल्म जैसी चीजों को इस्लाम के खिलाफ माना जाता है। इस लिहाज से इस इलाके में शेर बानो जैसी महिला का सोशल मीडिया से लगाव होना काफी हैरान करता है। यहीं नहीं शेर बानो हर हफ्ते न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए बतौर गेस्ट ब्लॉगर, एक ब्लॉग भी लिखती हैं।
शेर बानों का मानना है कि स्थानीय संस्कृति औऱ दूसरी दुनिया की सभ्यता के बीच की खाई को पाटने की जरूरत है, जिसे सोशल मीडिया के जरिए ही पूरा किया जा सकता है। हालांकि, शेर बानो बचपन से समाज में गैरों की मदद के लिए मशहूर हैं। पाकिस्तान में भूंकप से भारी तबाही हो या बाढ़ की जद में आए गांव के गांव, सभी जगहों पर मदद के लिए शेर बानों ने सोशल मीडिया के जरिए जरूरतमंदों के लिए काफी राहत सामग्री जुटाए।
दरअसल, शेर बानो की जिंदगी और सोच में बदलाव तब आया जब उन्हें अमेरिका में जाकर रहने का मौका मिला। एक ऐसी लड़की जिसे अकेले बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी औऱ आसपास के लड़कों से मिलने जुलने पर पाबंदी थी औऱ एक दिन उसे अमेरिका की खुली संस्कृति से सामना हो गया। यहीं से पैदा हुई दो संस्कृतियों की अच्छाईयों को करीब लाने की सोच।
इतिहास गवाह है कि पेशावर के कुछ इलाके कट्टरपंथी हिंसा के लिए जाने जाते रहे है लेकिन अब इस कबायली और सरहदी इलाके में भी कुछ-कुछ बदलने लगा है। शेर बानो उर्फ मलाला की शक्ल में बदलाव हम सबके सामने है, जिसने सोशल मीडिया के जरिए बदलाव का आगाज किया है। पेशावर ही नहीं पूरे पाकिस्तान में सोशल मीडिया की भूमिका काफी अहम होती जा रही है और आज वो आम लोगों के हाथ में है जिस पर कोई रोक नहीं लगा सकता। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से मुख्य मीडिया यानी टीवी चैनल्स और अखबार भी काफ़ी परेशान दिख रहे हैं।
पाकिस्तान में सोशल मीडिया को इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है और उसकी बड़ी वजह यह है कि अब फेसबुक और ट्विटर पर उर्दू स्क्रिप्ट लिखे जा सकते हैं।
हाल ही में पाकिस्तान का आम चुनाव हो या यू ट्यूब बैन के खिलाफ आवाज बुलंद करना हो, दोनों मौके पर सोशल मीडिया (फेसबुक, ट्वीटर) ने अपना असर दिखाया। दोनों मामले में सोशल मीडिया पर चलाए गए अभियान ने लोगों को एक दूसरे करीब ला दिया। एशिया में इसकी मकबूलियत का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया में एक अरब फ़ेसबुक इस्तेमाल करने वालों में से 21 फीसदी सिर्फ एशिया में और करीब 1 करोड़ फ़ेसबुक यूजर्स पाकिस्तान में हैं। फैसबुक जैसे सोशल मीडिया के साथ आज जहां 850 मिलियन सक्रीय मासिक यूजर्स जुड़े हुए हैं, वहीं इससे जुड़ा हर आदमी से औसतन 130 लोग जुड़े हुए हैं। पाकिस्तान में 50 प्रतिशत फेसबुक इस्तेमाल करने वाले ऐसे हैं जिनकी उम्र 18 से 24 सालों के बीच में है और 26 प्रतिशत यूज़र्स 25 से 34 साल के हैं।
सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में हम सब इस सोशल मीडिया के ऊपर निर्भर हो रहे हैं। डिजिटल एंपावरमेंट फाउंडेशन और अमेरिकन सेंटर द्वारा आयोजित दक्षिण एशिया सोशल मीडिया समिट इसकी बानगी है। इस समिट का मकसद दक्षिण एशियाई देशों के उन नौजवानों को एक मंच प्रदान करना था जहां वो अपने –अपने देश में इस्तेमाल किए जा रहे सोशल मीडिया की दिशा और दशा पर रोशनी डाल सकें। आज के दौर में सोशल मीडिया इस कदर हमारी सोच, हमारे विचार और हमारे दृष्टिकोण पर असर डालने लगा है कि अब ये रोजमर्रा की जरूरत बन चुका है।
यह सच है कि सोशल मीडिया के रूप में आज हम सबको ऐसा हथियार मिल गया है, जिसके जरिए हम अपनी आवाज आसानी से पहुंचा सकते हैं। लेकिन आज जरूरत इस बात की है कि पेशावर की शेर बानो की तरह हम भी अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त करते समय अपने मूल्यों को भी समझें, ताकि हम बेहतर ढंग से इसका इस्तेमाल कर दो समाज और संस्कृतियों की खाई को पाट सकें।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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