अब तक इक्कीसवीं सदी में पहुंचने का मतलब हम कंप्यूटर युग में प्रवेश को मानते थे। लेकिन, इक्कीसवीं सदी अब कंप्यूटर और माउस को दरकिनार कर स्मार्टफोन और टैबलेट के जरिए देखी जा रही है। इसका उदाहरण बीते पिछले 1-2 साल में हुए कुछ देशव्यापी आंदोलनों के रूप में हमें देखने को मिला। जिसमें स्मार्टफोन, टैबलेट और सोशल मीडिया की भूमिका खास रही है।
दरअसल, सोशल मीडिया की ताकत का अहसास पिछले कुछ समय से सबको लगने लगा था। लेकिन, इसका सबसे बड़ा प्रभाव तब दिखा था जब अप्रैल 2011 में पहले जंतर मंतर और उसके बाद रामलीला मैदान से अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी लड़ाई छेड़ी थी।
इसके बाद 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली दुष्कर्म की घटना ने इसकी अहमियत और बढ़ा दी। इस घटना के बाद युवाओं और महिला संगठनों ने दोषियों को सजा दिलाने के लिए जिसतरह फेसबुक, ट्विटर के सहारे एक देशव्यापी अभियान चलाया वो सोशल मीडिया की ताकत का एहसास कराने के लिए काफी है।
सोशल मीडिया जैसी तकनीक ने न सिर्फ आंदलनों को अंजाम तक पहुंचाया, बल्कि राजनीतिज्ञों और राजनीतिक पार्टियों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया। अब जैसे-जैसे वोटरों के बीच इसकी दिलचस्पी और रुझान बढ़ती जा रही है उससे सियासी पार्टियों में बेचैनी बढ़ना लाज़िमी है। जिसकी झलक हमें 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान होते ही मिलने लगी है।
वैसे तो पहले भी मेट्रो या बड़े शहरों में पहले से भी फेसबुक, ट्वीटर जैसी सोशल मीडिया टूल को लेकर काफी उत्सुकता रही है, लेकिन अब चुनाव के मद्देनजर सभी पार्टियों की तरफ से सोशल मीडिया के जरिए ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी पहुंच बनाने की होड़ भी शुरू हो गई है। यहां तक कि कई पार्टियों की तरफ से चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया के लिए अलग कम्युनिकेशन टीम भी गठित की जा चुकी है, ताकि विधानसभा के साथ-साथ लोकसभा चुनाव की भी पृष्ठभूमि बनाई जा सके। ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि 2014 के आम चुनावों पर सोशल मीडिया खासकर फेसबुक का काफी असर दिखने वाला है।
हालांकि, इसी सिलसिले में सोशल मीडिया की अहमियत पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। आईएमएआई और आरआईएस नॉलेज फाउंडेशन की इस रिपोर्ट के मुताबिक देश की 543 में से 160 लोकसभा की सीटें ऐसी हैं जिस में 10% से ज्यादा मतदाता फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया वेबसाइट का इस्तेमाल करते है। पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजों पर एक नजर डालें तो पता चलता है कि 10% मतदाता का रुझान किसी भी नतीजे पलटने के लिए काफी है। क्योंकि पिछली बार कई ऐसी सीटें थी जिन पर जीत का मार्जिन 10% से भी कम था।
रिसर्च के मुताबिक आगामी लोकसभा चुनाव 2014 में जिन सीटों पर सोशल मीडिया का ज्यादा असर दिख सकता है उनमें सबसे ज्यादा महाराष्ट्र की 21 सीटें और गुजरात की 17 सीटें हैं। ऐसी सीटों में उत्तरप्रदेश की 14, कर्नाटक और तमिलनाडु की 12-12, आंध्र प्रदेश में 11 और केरल में 10 सीटें शामिल हैं। जबकि मध्यप्रदेश में 9 सीटों और दिल्ली में 7 सीटों को सोशल मीडिया खेल बिगाड़ने-बनाने का मद्दा रखती है। हालांकि हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में ऐसे सीटों की संख्या सिर्फ 5-5 हैं जबकि छत्तीसगढ, बिहार, जम्मू कश्मीर, झारखंड और पश्चिम बंगाल में ऐसी 4-4 सीटें शामिल हैं।
यानी इस रिसर्च के मुताबिक इस बार सबसे ज्यादा सोशल मीडिया का असर महाराष्ट्र और गुजरात में देखने को मिल सकता है क्योकि वहां पर सबसे ज्यादा मतदाता फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते है। इसके अलावा दिल्ली और मुंबई की सभी सीटों पर भी सोशल मीडिया का जोरदार असर देखने को मिल सकता है। शायद इसी वजह से सभी पार्टियों के नेता सोशल मीडिया को इतनी अहमियत दे रहे है।
वैसे भी इस बार के चुनावो में 14 करोड़ नए मतदाता बढ़ने के आसार है और इनमें से 9 करोड़ लोग सोशल मीडिया के रेगुलर यूजर्स हैं। एक ताजा आंकड़े के मुताबिक, फिलहाल भारत में इंटरनेट के 13 करोड़ उपभोक्ता हैं, और फेसबुक पर करीब सात करोड़ जबकि ट्विटर पर करीब दो करोड़ लोग मौजूद हैं। फेसबुक-ट्विटर के उपभोक्ताओं का आंकड़ा भारत की आबादी की तुलना में बहुत छोटा जरूर है, लेकिन ये आबादी ब्रिटेन जैसे कई मुल्कों से भी ज्यादा है। इसका सीधा मतलब यह कि सोशल मीडिया यूजर्स और उनके विचार को अब हम सिरे से खारिज नहीं कर सकते।
ओसामा मंजर
लेखक डिजिटल एंपावरमेंट फउंडेशन के संस्थापक निदेशक और मंथन अवार्ड के चेयरमैन हैं। वह इंटरनेट प्रसारण एवं संचालन के लिए संचार एवं सूचनाप्रौद्योगिकी मंत्रालय के कार्य समूह के सदस्य हैं और कम्युनिटी रेडियो के लाइसेंस के लिए बनी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्यहैं।
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