आज जिस तरह जन-जन तक इंटरनेट की पहुंच हो रही है, उसी अनुपात में असमानता भी अपने पैर पसार रहा है। ये असमानता इतनी ज्यादा है, कि अगर समय रहते हम इसे गंभीरता से नहीं लेते तो हम न चाहते हुए भी एक आभासी समानांतर दुनिया की बुनियाद रख देंगे, जिसमें बड़े स्तर पर डिजिटल विषमता और पक्षपात नजर आएगा।
एक सर्वे के मुताबिक आज पूरी दुनिया में 6.5 बिलियन मोबाइल उपभोक्ता हैं, जिनमें से एक बिलियन अंग्रेजी भाषा को तरजीह देते हैं। वहीं दूसरी तरफ विश्व की 30 ऐसी मुख्य भाषाएं हैं, जो उपेक्षा की शिकार हैं और उनपर खास ध्यान देने की जरूरत है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया(आईएएमएआई) और आईएमआरबी इंटरनेशनल की रिपोर्ट भी बताती है कि स्थानीय भाषा ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट को बढ़ावा देने का सबसे कारगर हथियार है। ये रिपोर्ट सात राज्यों के 35 शहरों में हुए अध्ययन के आधार पर तैयार की गई थी। रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण भारत में स्थानीय भाषाओं में ऑनलाइन सामग्री का शुरुआती इस्तेमाल मनोरंजन, सोशल नेटवर्किंग और ईमेल के लिए होता है, जबकि शहरी इलाकों में सर्वाधिक ऑनलाइन गतिविधियां ईमेल, समाचार और सर्च से ताल्लुक रखती हैं। ग्रामीण इलाकों में 27 फीसदी यूजर हिंदी का ऑनलाइन कंटेंट इस्तेमाल करते हैं जबकि इसके बाद मराठी और तमिल भाषा का नंबर आता है। शहरी इलाकों में हिंदी के 60 फीसदी यूजर हैं जबकि तमिल और मराठी इसके बाद आती हैं।
ऐसे में हमें जरूरत है कि स्थानीय भाषाओं को इंटरनेट और मोबाइल पर भी आम चलन में लाया जाए। वैसे भी आमतौर पर 10 में 9 इंटरनेट उपभोक्ता ऐसे होते हैं जो इंटरनेट पर वेबसाइट्स को अपनी भाषा में चाहते हैं। उनकी इच्छा होती है उन्हें सूचना उन्हीं की भाषा में उपलब्ध करवाई जाए। ऐसे ही ऑनलाइन खरीदारी करने वाले 73 फीसदी इंटरनेट उपभोक्ता अंग्रेजी की बजाए अपनी भाषा में जानकारी चाहते हैं। जबकि इंटरनेट पर 57 प्रतिशत कंटेंट अंग्रेजी में है।
इस क्रम में शोध के लिए शुरुआत हमें भारत से करनी चाहिए। क्योंकि भारत में भाषाओं और उच्चारण में विभिन्नता की भरमार है, जहां करीब 900 मीलियन मोबाइल कनेक्शन खरीदे और इस्तेमाल किए जाते हैं। वहां भी अंग्रेजी बोलने वालों के लिए सूचना का भंडार है। भारत की 1.3 बिलिनय जनसंख्या में 76 फीसदी लोग ही साक्षर हैं और जिसमें अंग्रेजी भाषा के जानकार 10 प्रतिशत से भी कम हैं। जिसका सीधा मतलब हुआ कि 64 प्रतिशत साक्षर लोग अंग्रेजी जानते हों यह जरूरी नहीं। इसका मतलब ये भी हुआ कि 500 मिलियन मोबाइल उपभोक्ता मोबाइल को केवल बात करने के लिए ही इस्तेमाल करते हैं बहुआयामी उपकरण के रूप में नहीं, चूंकि इस सबके लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान जरूरी है। और आगे चलकर ये किसी भी संचार विस्तार में बाधक साबित हो सकता है। आज इस देश में 900 मिलियन उपभोक्ताओं में से 500 मिलियन उपभोक्ता केवल अंग्रेजी भाषा में संचालन की अधिकता के कारण डिजिटल दुनिया से दूर हो जाते हैं।
ऐसे में रेवरी जैसी स्थानीय भाषा की अहम भूमिका हो सकती है। रेवरी एक ऐसी स्थानीय भाषा है जो तकनीक पर आधारित है जो मोबाइल जैसे उपकरणों के लिए भाषा को उपयोग योग्य बनाते हैं।
इसके लिए मैं रेवरी तकनीक के प्रवर्तक और एमबीलियंथ के पूर्व विजेता से विस्तार से चर्चा कर रहा थाI क्योंकि रेवरी भाषाओं को मोबाइल के लिए बिना किसी परेशानी के आसान उपयोग की दिशा में बहुत गंभीरता से काम कर रहे हैं। रेवरी के मुताबिक स्थानीय भाषा के लोगों के लिए मोबाइल या अन्य डिजिटल उपकरणों के उपयोग में कई चुनौतियां पेश आती हैं। इनमें से कुछ है जैसे फॉन्ट की अनुपलब्धता, गुणवत्ता की कमी, इंटरनेट उपभोक्ता से बेहतर जुड़ाव न होना व अनुभव की कमी, गलत टेक्स्ट व डिज़ाइन जिससे पेज सही से उभर कर नहीं आता, कोई स्टैंडर्ड की पैड नहीं, टाइपिंग में कठिनाई, क्योंकि कोई पहले से अंकित टेक्स्ट नहीं आता और तो और सोशल मीडिया का अनुभव भी अंग्रेजी की तुलना में उतना अच्छा नहीं है।
लेकिन, चीन में ठीक इसका उलट है। चीन ने अपनी स्थानीय भाषा में इंटरनेट व मोबाइल अनुभव को बेहतर राजस्व देने वाले उद्योग के रूप में विकसित कर लिया है। चीन की इस तरक्की पर एक नजर डालें, तो हम पाते हैं कि 96 फीसदी साक्षरता के साथ हमसे आगे जो बेशक हमसे बहुत बेहतर है। उनकी साक्षरता दर में पांच फीसदी से भी कम लोग होंगे जो अंग्रेजी जानते हैं, जो भारत से कमतर है। दोनों ही देशों का मोबाइल प्रसार करीब एक जैसा है, जहां चीन 963 मिलियन का दावा करता है। मगर चीन में 856 मिलियन मोबाइल उपभोक्ता स्थानीय भाषा का इस्तेमाल करते हैं जो प्रतिशत में 90 फीसदी है।
जब चीन में मोबाइल का ज्यादातर उपयोग स्थानीय भाषा में किया जाता है, उनके प्रमुख कंटेंट व वाणिज्य का कार्य भी स्थानीय भाषा में किया जाता है तब भी उनका राजस्व करीब 10 बिलियन डॉलर है। इसकी तुलना में भारत में यही राजस्व 1.2 बिलियन डॉलर ही है। इसी तरह भारत में टेलिकॉम कंपनियो का प्रति उपयोगकर्ता औसत राजस्व (Average Revenue Per User, ARPU) अमेरिकी डॉलर के हिसाब से मात्र 1.35 डॉलर है, जो चीन में यही एआरपीयू 10.3 अमेरिकी डॉलर है जो भारत से 10 गुणा ज्यादा है।
यह सब कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि जब तक हम अपने मोबाइल उपभोक्ताओं को उपयोग के लिए पूरी तरह संपूर्ण अनुभव नहीं देंगे, केवल वॉयस (बोल कर बातचीत का आदान-प्रदान) से हम उनके सशक्तिकरण की उम्मीद नहीं कर सकते, इसका तो कोई व्यापारिक तर्क भी नहीं हैं। हां केवल जिरह करने के लिए तो मैं भी कर सकता हूं, मगर जब हम अपने मोबाइल उपभोक्ताओं को हाई स्पीड कनेक्शन जैसे 3जी या 4जी का इस्तेमाल करने के लिए देंगे, उनके अनुभव को बढ़ाने के लिए मोबाइल के बहुआयामी इस्तेमाल के लिए स्थानीय भाषा के उपयोग को बढ़ावा देंगे तब हम लिखने की अशिक्षा को कम करने की आशा कर सकते हैं। इसमें भाषा आधारित कंटेंट को कोई उपयोग कर सकता है, उसके प्रसार से आनंदित हो सकता है। मगर विडंबना ये है कि आज भी हाई स्पीड ब्रॉडबैंड दूर की ही कौड़ी है, तो ऐसी स्थिति में यह और ज्यादा जरूरी हो जाता है कि हमारे उपकरण स्थानीय भाषा में उपयोग करने लायक हों और हमारे सम्मानीय उपयोगकर्ता को बेहतर अनुभव दे सकें।
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